Thursday 31 December 2015

सिलहट ----
भारत पाक विभाजन के समय सिलहट एकमात्र जिला ऐसा था जिसका निर्णय वोटों से हुआ की वह भारत में रहे या पाकिस्तान में | विभाजन पूर्व ये असम का एक जिला हुआ करता था | यहाँ हिन्दू मुस्लिम आबादी लगभग बराबर थी | इसीलिए हिन्दू नेता इसे भारत में और मुस्लिम नेता इसे पाकिस्तान में मिलाने की पैरोकारी कर रहे थे | पर विभाजन की चर्चा से आस पास के जिलों के बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू सिलहट में आ बसे थे जिससे सिलहट स्पष्ट हिन्दू बहुमत वाला जिला बन गया | कोई निर्णय न होता देख अंतत:  मतदान कराने का निर्णय लिया गया | मतदान हुआ और हिन्दू भारी बहुमत होते हुए भी ५०००० मतों से हार गए | क्यों ? क्योकि हिन्दू मत डालने ही नहीं गए | मतदान वाले दिन हिन्दू ताश, शतरंज और उस प्रकार के अन्य खेलों में व्यस्त रहे | और जनमत हार गए | फिर सिलहट को पाक में जाना था सो चला गया | उसके बाद हिन्दुओं पर मुस्लिमों ने जमकर कहर बरपाया | लूट, हत्या, बलात्कार, धर्मांतरण आखिर हिन्दू के साथ क्या नहीं हुआ | जो उन्होंने झेला | अपनी जरासी गलती, मुर्खता और नासमझी के कारण हिन्दू सिलहट में अपने विनाश का कारण स्वयम बना |

ऐसे ही विभाजन से पूर्व कश्मीर में परावर्तित मुस्लिमो ने महाराजा गुलाब सिंह से घरवापसी के लिए कहा था | गुलाब सिंह ने कश्मीरी पंडितों से पूछा कि ये मुस्लिम जो किन्ही कारणों से इस्लाम कबूल कर चुके थे अब वापस अपने घर हिन्दू धर्म में आना चाहते है | तो पंडितों ने कहा था की हम सतलुज में कूद कर जान दे देगे पर इनकी घर वापसी स्वीकार नहीं करेंगें | और आप पर ब्राहमण हत्या का पाप लगेगा | क्योकि हिन्दू से जाने के बाद वापसी नहीं है और ये गोमांस खा चुके है | महाराजा गुलाबसिंह आने वाली परिस्थितियों से परिचित थे अत: वे काशी के ब्राह्मणों तक भी समाधान के लिए गए | पर काशी के ब्राहमणों ने भी वही कश्मीरी पंडितों वाला जवाब दिया कि हम गंगा में कूद कर जान दे देंगे | अंतत: गुलाब सिंह को हार मननी पड़ी और आज वही कश्मीरी पंडित ४-५ लाख की संख्या में कश्मीर छोड़ जम्मू दिल्ली की सडकों पर है और वे ही परावर्तित मुस्लिम आज कश्मीर के मालिक है |    

Wednesday 9 December 2015

             “रामपुर तिराहा कांड”
१ अक्तूबर १९९४ -- मुजफ्फर नगर का रामपुर तिराहा भी कभी मुज्जफर नगर के कवाल कांड की तरह सुर्ख़ियों में था | और आज कवाल की तरह प्रशिद्ध एतिहासिक घटना के रूप में दर्ज है | दोनों घटनाओं के मैनेजर मुलायम सिंह है क्योंकि मुलायम सिंह लाशों की राजनीति में ही लाभ हानि देखते है | उत्तराखंड में एम वाई समीकरण नहीं चलता अत: उसमे कोई हानि नही थी इसलिए गोली चलवाने में देर नहीं की | स्थान भी दोनों घटनाओं का मुजफ्फर नगर है और समय भी लगभग सामान है तिराहा कांड १ अक्तूबर को व कवाल ७ सितम्बर को हुआ | हम रामपुर तिराहा कांड का पोस्ट मार्टम करके देखते है |
    १९९३ में मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने | स्वतन्त्र राज्य की मांग के चलते उत्तराखंडी २ अक्तूबर १९९४ को राजघाट गाँधी की समाधि पर धरना देने जा रहे थे | मुलायम ने उन्हें दिल्ली न पहुचने देने की कसम खा रखी थी | अत: गेम रामपुर तिराहा (मुजफ्फर नगर) पर सजाया गया था | निर्दोष निहत्थे उत्तराखंडियों पर बिना किसी उत्तेजना के अंधाधुंध गोली बरसा दी गई | सैंकड़ो लोग घायल हुए और ७ लोग मारे गए महिलाओं के साथ बलात्कार, छेड़छाड़ और अश्लील हरकते हुई नंगी ओरतों को भाग कर गन्ने के खेतो में जान बचानी पड़ी | सरकार ने छपार थाने में उत्तराखंडियों पर फर्जी मुक़दमें दायर कर दिए |

    इलाहबाद हाईकोर्ट सख्त हुआ जनवरी १९९५ में सीबीआई को जांच दी गई | इस मामले में ५ वरिष्ठ अधिकारी सहित छपार, खतौली, झिंझाना व मुजफ्फर नगर के थानाध्यक्षो सहित १५ -२० अन्य पुलिसकर्मीयों पर सीबीआई ने मुक़दमे दायर हुए | इनको लाश छिपाने, शस्त्र बरामदगी और हेराफेरी जैसे संगीन फर्जी मुकदमे दायर करने का दोषी पाया गया था | जिला चिकित्सा अधिकारी ने उत्तराखंडीयों की और से फायरिंग दिखाने के लिए पुलिसकर्मीयों के शारीर में ओपरेशन कर छर्रे घुसा दिए थे |  उस समय मुलायम सिंह ने कहा था सब फर्जी है यदि एक भी बलात्कार साबित हो गया तो राजनीती से सन्यास ले लूँगा | बाद में ३८ महिलाओं के साथ पुलिसकर्मियों के द्वारा बलात्कार के मामले सामने आये और मुक़दमे दायर हुए | ये मुलायम सिंह डाला सिमेंट फैक्ट्री में अपने चहेते उद्धोगपति को कब्ज़ा दिलाने के लिए फैक्ट्री घेरे बैठे निर्दोष मजदूरो पर भी महोदय गोली चलवा चुके है | अयोध्या गोलीकांड से कौन परिचित नहीं है | १९९९ में बाजपेयी सरकार ने नए उत्तराखंड राज्य का गठन किया |

                   “पद्मनाभं मंदिर का खजाना खतरे में”
ये तो आप जानते है कि केरल के तिरुअन्तपुरम स्थित भगवान पद्मनाभ स्वामी (विष्णु भगवान) का मंदिर अकूत सम्पदा जो लगभग एक लाख करोड के आस पास मानी जाती है, का स्वामी है | इस पर केरल सरकार कि गिद्ध दृष्टि है | ये वो संपत्ति है जिसे हिन्दू सदियों से अपने इष्ट भगवन विष्णु को श्रधा पूर्वक चढ़ाता आ रहा है | जिसका हाल ही में खुलादा हुआ था | सुप्रीम कोर्ट ने अपनी देख रेख में इस संपत्ति की जांच और मूल्याङ्कन करने का कार्य शुरू किया | सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा की ये संपत्ति मंदिर और उस राजपरिवार की है जिसने इसे बनवाया था | इस सम्पदा के मंदिर से गायब होने कि आशंका प्रबल हो गयी है | ये आशंका न्यायालय कि सहायता हेतु नियुक्त अधिवक्ता गोपाल सुब्रह्मण्यम ने अपनी ३५ दिनी जांच के बाद उच्चतम न्यायालय को दी रिपोर्ट में कि है |

दरअसल इस भारी खजाने का पता जुलाई २०११ में लगा था | तब इसकी जांच को उच्चतम न्यायालय ने ही मूल्यांकन का काम अधिवक्ता गोपाल सुब्रह्मण्यम को सौंपा था | मंदिर प्रांगण में गोल्ड प्लेटिंग मशीन के मिलने से खजाना गायब होने कि शंका को और बल मिलता है | मशीन के माध्यम से असली स्वर्ण आभूषणों को या तो गायब कर दिया या नकली में बदल दिया गया | अभी तक ६ तहखानो ‘ए’ से ‘एफ’ तक के खजानों कि जांच कि जा चुकी है | गोपाल सुब्रह्मण्यम के अनुसार दो तहखाने ‘जी’ और ‘एच’ के भी होने और उनके खोलने कि भी मांग अधिवक्ता ने कि है, जिसका काफी विरोध हुआ | गोपाल सुब्रह्मण्यम ने मंदिर के खातों में भी गडबडियाँ पायीं जिनकी जांच पूर्व नियंत्रक एवं रक्षा लेखा परीक्षक से कराने कि मांग कि है | इनके आलावा ३० साल से दानदाताओं के दिए पैसे कि भी गिनती नहीं हुयी है | महत्वपूर्ण बात ये है कि केरल सरकार को मंदिर अपने हाथ में लेने वाले केरल उच्च न्यायालय के निर्णय पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा रखी है | यहाँ ये बताना भी आवश्यक है कि मंदिर त्रावनकोर राजपरिवार के कुल देवता पद्मनाभ स्वामी का है तथा राजपरिवार ने अपना पूरा साम्राज्य भगवान को समर्पित कर दिया था ||

                       “काली नदी-प्रागैतिहासिक भागीरथी”
सभी प्राचीन सभ्यताए नदियों के ही किनारे पुष्पित पल्लवित हुई है | इसका प्रमुख कारण है की उस समय जल मार्ग ही आवागमन के प्रमुख साधन हुआ करते थे | सरस्वती, सिन्धु, नील नदी की सभ्यताए इसका उदहारण है | लन्दन टेम्स और मास्को मस्कवा नदी के तट पर बसे है |  मोहन्जोंदाडो,लोथल, हड़प्पा सभ्यता सरस्वती नदी के किनारे विकसित हुईं ओर नदी के साथ ही समाप्त हो गयी | त्रेता युग में मेरठ को मय दानव द्वारा मयराष्ट्र के रूप में हेमा के कारण इंद्र से छुपकर मायावी नगरी के रूप में बसाया गया था | जो उस समय की पूर्ण विस्तृत काली नदी के पश्चिम मुहाने पर बसा था | तब ये नगर से सट कर बहती थी यहाँ अब वर्तमान में कचहरी है | काली नदी की बार बार की बाढ़ की तबाही से बचने के लिए अंग्रेजो ने इसे खुदवाकर नगर से  १० किलोमीटर दूर पूरब में वर्तमान स्थान पर पहुचाया था | अब भी यदि कभी बाढ़ की स्थिति आती है जैसा की १९६२ व १९७८ में देखने को मिली, तो ये नदी अपने पूर्व मूल मार्ग पर ही नगर से सटकर बहने लगती है और १ से दो किमी का विस्तार कर लेती है | जो उपरोक्त बात की पुष्टि करता है | मेरठ के उत्तर में व रुड़की रोड के १-१.५ किमी पूरब में  सोफिपुर, गुरुकुल डोरली, पल्हैडा के पूरब के जंगल को आज भी ग्रामवासी नदी कहकर पुकारते हैं | इस क्षेत्र में आज भी ६ से १० फूट नीचे बालुका पट्टी मिलती है | गत दिनों कचहरी परिसर में भी “तेरह न्यायालय कोर्ट” के निर्माण के समय भी १० फिट मोटी बालुका पट्टी मिली थी | लावड मार्ग पर काली नदी के पुल के ऊपर खड़े होकर मेरठ की और देखने से साफ़ दिखता है की नदी को पूरब की और खोदकर मोड़ा गया है | इसी क्षेत्र के गांव खानोदा के एक बुजुर्ग शाहबुद्दीन का कहना है की “हमारे दादा परदादा ने काली नदी की खुदाई में दो पैसा रोज पर मजदूरी की थी |”
काली नदी की प्राचीनता का प्रमाण हमें ‘बाल्मीकि रामायण’ के अयोध्या कांड के सर्ग ७१ में भी देखने को मिलाता है | जिसके अनुसार महाराजा दसरथ के मरणोपरांत जब भरत अपने ननिहाल कैकेय देश की राजधानी गिरिव्रज से अयोध्या लौट रहे थे तो मार्ग में पड़ने वाले नदी और प्रदेशो का जिक्र रामायण में आया है |  इस यात्रा में यमुना के पूरब में भागीरथी और फिर गंगा का जिक्र है, यानि यमुना –गंगा के बीच एक विशाल भागीरथी नदी (काली नदी) थी ­–
    “यमुना प्राप्य संतिर्नोबलम माश्वास यत्तदा, भागीरथीम दुश्प्रतराम सोशुधाने महानदीम | ७१\६
      उपायाद्राघव स्तुर्नम प्राग्वटे विश्रुते पुरे, स गंगा प्राग्वटे तीर्त्वा समायात कुटि कोष्ठिकाम | ७१\९
 (यमुना पार करके सेना को विश्राम दिलाया, फिर दुश्प्रतरा (कठिनाई से पार करने योग्य) भागीरथी महानदी को पार करके प्राग्वट में गंगा नदी को पार किया) | उत्तरीय मत्स्य देश को पार करके भरत यमुना किनारे पहुंचे थे |
   प्राग्वट की स्थिति फतेहगढ़ के समीप बताई जाती है | इस प्रकार रामायण कालीन भागीरथी ही वर्तमान काली नदी है | मानचित्र में भागीरथी गंगोत्री से निकलकर कुछ दूर पश्चिम को चलकर दक्षिण को बहती है | टिहरी जनपद में अपना प्रवाह पूर्व को लेकर रूद्र प्रयाग में अलकनंदा से संगम करती हुई तथा मार्ग में पड़ने वाली पहाड़ी नदियों को अपने में आत्मसात करती हुई गंगा का रूप लेती है | मानचित्र पर ध्यान देने से प्रतीत होता है की भागीराथी का सीधा प्रवाह दक्षिण भारत की और था | किसी भोगोलिक विक्षोभ के कारन यह पूर्व को मुड कर अलकनंदा में जा मिली | और बीच में ये प्रवाह लुप्त होकर मुजफ्फरनगर जिले की जानसठ तहसील के गाँव अन्तवाडा में यह श्रोत पुन: फूट पड़ा, और आगे बढ़ता हुआ मेरठ, बुलंदशहर में बड़ी काली नदी का रूप  ले ले लिया | मेरठ नगर के पास काली नदी का प्रवाह गुरुकुल डोरली के पास से होता हुआ, कचहरी और फिर पुरानी तहसील के पूर्व की और से था | १९६७ में पल्हैडा के जंगल में एक ट्युबैल के बोरिंग के समय ८०-१०० फूट नीचे नाव की लकड़ी के टूकडे,जो कोयले का रूप धारण कर रहे थे, मिले थे | लकड़ी को इस स्थिति में आने में लाखों साल लगते है |

          (स्वतंत्रता सेनानी रत्नाकर शास्त्री का काली नदी पर शोध परक लेख, ये मेरठ के पल्हैडा निवासी और        रामायण के विद्वान् थे)    

Friday 21 August 2015

ओंकारनाथ ठाकुर 
(
जिन्होंने ६ माह से नहीं सोये इटली के शासक मुसोलिनी को अपने संगीत के सम्मोहन से यूँ ही सुला दिया)
(1897–1967) भारत के प्रसिद्द शिक्षाशास्त्री, संगीतज्ञ एवं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीतकार  थे । उनका  सम्बन्ध ग्वालियर घराने  से था । वे तत्कालीन संगीत परिदृष्य के सबसे आकर्षक व्यक्तित्व थे। पचास और साठ के दशक में पण्डितजी की महफ़िलों का जलवा पूरे देश के मंचों पर छाया रहा। पं॰ ओंकारनाथ ठाकुर की गायकी में रंजकता का समावेश तो था ही, वे शास्त्र के अलावा भी अपनी गायकी में ऐसे रंग उड़ेलते थे कि एक सामान्य श्रोता भी उनकी कलाकारी का मुरीद हो जाता। उनका गाया  वंदेमातरम या 'मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो' सुनने पर एक रूहानी अनुभूति होती है।

पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का जितना प्रभावशाली व्यक्तित्व था उतना ही असरदार उनका संगीत भी था।  उन्होने एक बार सर जगदीशचन्द्र बसु की प्रयोगशाला में पेड़-पौधों पर संगीत के स्वरों के प्रभाव विषय पर  एक बार वे अभिनव और सफल प्रयोग किया था। इसके अलावा १९३३ इटली की यात्रा पर थे, उन्हें ज्ञात हुआ की वहाँ के शासक मुसोलिनी को पिछले छः मास से नींद नहीं आई है । वहां  के पंडितजी के आयोजको को भी पता चला की पंडितजी के संगीत में बहुत बड़ा जादू और सम्मोहन है | आयोजको ने पंडितजी से पूछा की “आप हमारे शासक मुसोलिनी को संगीत के जादू से सुला सकते है क्या, यहाँ के सभी प्रयास विफल हो चुके है |” पंडित जी ने हलके से मन से कहा की “देख लेंगे” | उपरी मन से आयोजको ने अगले दिन मुसोलिनी के समक्ष पंडितजी का कार्यक्रम रख दिया और देखने को इटली की जनता भी बड़ी संख्या में पहुची | पण्डितजी ने मुसोलिनी के समक्ष सहज भाव से प्रस्तुति शुरू की जनता भाव विभोर हो गई | कुछ देर में मुसोलिनी भी झूमने लगे, और उनके गायन से प्रभावित हो उसे तत्काल नींद आ गई । उनके संगीत में ऐसा जादू था कि आम से लेकर खास व्यक्ति भी सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता था। इटली की जनता पंडित जी की कला का और भारत की प्रतिभा का लोहा मान गई |

Monday 3 August 2015

                                     “कोहेनूर हीरा
भारत की विश्व विख्यात धरोहर कोहेनूर हीरा, जिसे अंग्रेज भारत से दूर लंदन ले गए थे, भले ही दुनिया का सबसे अनमोल हीरा क्यों ना हो लेकिन उसके साथ मौत के आलावा पूरी तरह तबाही और बर्बादी भी जुडी है | कोहेनूर – (कोह-ए-नूर), का अर्थ है रोशनी का पहाड़, लेकिन इस हीरे की रोशनी ने ना जाने कितने ही साम्राज्यों को तबाह कर दिया | आंध्र-प्रदेश के गुंटूर जिले में स्थित एक खदान से इस बेशकीमती हीरे का निकलना बताया जाता है । ऐतिहासिक दस्तावेजों में सबसे पहले इस हीरे का उल्लेख बाबर के द्वारा 'बाबरनामा' में मिलता है । ‘बाबरनामा’ के अनुसार यह हीरा कोहेनूर नाम से पहले सन 1294 में ग्वालियर के एक गुमनाम राजा के पास था लगभग 1306 ई. के बाद से ही इस हीरे को पहचान मिली । कोहेनूर हीरा हर अपने धारण कर्ता के लिए श्राप बना | केवल ईश्वर और महिलाएँ ही इसके श्राप से मुक्त रहीं इतिहास से जुड़े दस्तावेजों के अनुसार 1200-1300 ई. तक इस हीरे को गुलाम , खिलजी, व लोदी साम्राज्यों के पुरुष शासकों ने अपने पास रखा पर श्राप के कारण सारे साम्राज्य अल्प कालीन रहे । 1083 ई. से शासन कर रहा काकतीय वंश भी 1323 ई. कोहिनूर के आते ही अचानक बुरी तरह ढह गया । काकतीयों के पतन के पश्चात यह हीरा 1325 से 1351 ई. तक मोहम्मद बिन तुगलक के पास रहा और 16वीं शताब्दी के मध्य तक यह विभिन्न मुगल सल्तनत के पास रहा और सभी का कल्पनातीत अंत हुआ | शाहजहां ने इस कोहेनूर हीरे को अपने मयूर सिंहासन में जड़वाया लेकिन उनका आलीशान और बहुचर्चित शासन उनके बेटे औरंगजेब ने छीनकर शाहजहाँ को उसके ही महल में नजर बंद कर दिया | उनकी पसंदीदा पत्नी मुमताज का इंतकाल हो गया | 1605 में एक हीरों जवाहरातों का पारखी फ्रांसीसी यात्री जो भारत आया उसने कोहेनूर हीरे को दुनिया के सबसे बड़े और बेशकीमती हीरे का दर्जा दिया । 1739 में फारसी शासक नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत को परास्त किया । 1747 में नादिर शाह का भी कत्ल हो गया और कोहेनूर उसके उत्तराधिकारियों के हाथ में आ गया लेकिन कोहेनूर के श्राप ने उन्हें भी नहीं छोड़ा । उनसे यह हीरा पंजाब के राजा रणजीत सिंह के पास गया और कुछ ही समय राज करने के बाद रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई और उनके बाद उनके उत्तराधिकारी गद्दी हासिल करने में ना कामयाब रहे । अन्ततः ये हीरा ब्रिटिश शासन के अधिकार में चला गया और अब उनके खजाने में शामिल हो गया। भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान इसे ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिजराएली ने महारानी विक्टोरिया को तब भेंट किया जब सन 1877 में उन्हें भारत की भी सम्राज्ञी घोषित किया ब्रिटिश राजघराने को इस हीरे के श्रापित होने की बात पता थी | इसीलिए 1936 में इस हीरे को किंग जॉर्ज षष्टम की पत्नी क्वीन एलिजाबेथ के क्राउन में जड़वा दिया गया जो तब से लेकर अब तक वहीँ है | कोहिनूर में कुछ बदलाव भी हुए | 1852 में जब ८००० पोंड खर्च कर तराशा गया तो यह 186.16 कैरेट / 186.06 कैरेट (37.2 ग्राम) से घट कर 105.602 कैरेट / 106.6 कैरेट (21.6 ग्राम) का हो गया, किन्तु इसकी आभा में कई गुणा बढ़ोत्तरी हुई। जिससे इस रत्न का भार 81 कैरट घट गया । हीरे को मुकुट में अन्य दो हजार हीरों सहित जड़ा गया । आजादी के फौरन बाद भारत ने कई बार कोहिनूर पर अपना मालिकाना हक जताया है | 150 हजार करोड़ रुपये मूल्य के हीरे की असली हकदार महाराजा दिलीप सिंह की बेटी कैथरीन की सन् 1942 मे मृत्यु हो गई | वैसे अनेक भारतीयों का ऐसा भी मानना है की श्री कृष्ण की श्यामान्तक मणि ये ही कोहेनूर हीरा है

 

Sunday 24 May 2015

“अफजल खांन और शिवाजी”

                 
“अफजल खांन और शिवाजी”
शिवाजी और कुटिल अफजल खान का संघर्ष को सभी जानते है | पर अपने शिवाजी भी शत्रु की कुटिलता पहचानने में आगे थे | शिवाजी ने अफजल को बिना कोई मौका दिए अपना बचाव करते हुए उसे ही मौत के घाट उतार दिया था | पर कांग्रेसी सरकार ने शिवाजी को महत्त्व न देते हुए अफजल को पीर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी | तथा शुरू में एक कब्र बनवादी और उसको भव्य रूप देने का भी पूरा प्रयत्न किया | पर अफजल की कब्र का एक और पहलू है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है । स्थानीय सूत्रों के अनुसार मुम्बई के नामचीन गुंडों तथा तस्करों का यहां से सम्पर्क है । पाकिस्तान से भी यहां के सूत्र जुड़े हुए हैं । ट्रस्ट का एक ट्रष्टी गुलाम जैनुल आबेदीन पाकिस्तानी था | 1993 में मुम्बई में हुए भयंकर बम विस्फोट का परीक्षण इसी इलाके में किया गया था । यह घटना कभी महाराष्ट्र के जिले प्रताप गढ़ की थी पर आज प्रताप गढ़ और महाबलेश्वर सतारा जिले का हिस्सा है | १८८५ के गजट के अनुसार तब तक यहाँ कुछ नहीं था | १९२० में अफजल की कब्र (दरगाह) का हल्का सा उल्लेख एक पुस्तक में मिलता है |
   यह पृष्ठभूमि जानने के बावजूद राज्य की कांग्रेस सरकार ने ‘अफजल मेमोरियल सोसायटी’ को वह पूरी जमीन, जिस पर सोसायटी ने अवैध रूप से कब्जा कर रखा था,  दे दी | पर चूंकि यह जमीन केन्द्रीय वन तथा पर्यावरण मंत्रालय की है, इसलिए यह प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास भेजा गया । राजग सरकार के पहले कार्यकाल में मार्च, 2003 में लोकसभा में भाजपा सांसद किरीट सोमैया ने  इस तथ्य पर सवाल पूछा | तत्कालीन पर्यावरण राज्यमंत्री दिलीपसिंह जूदेव ने बताया कि राज्य सरकार के प्रस्ताव को केन्द्र सरकार खारिज नहीं कर सकती । इसके बाद महाराष्ट्र विधानमंडल में डा. अशोकराव मोडक, जो स्वयं इतिहासविद् हैं, ने यह प्रश्न खड़ा किया । सतारा के जिलाधिकारी ने रपट दी कि यह सोसायटी अवैध है  । राज्य सरकार के इस अड़ियल तथा लचर रवैये के विरोध में तब राज्य की सभी हिन्दुत्वनिष्ठ ताकतें एकजुट हुई थी
अंग्रेजों के शासनकाल में ये जो कुछ चल रहा था वह भारत के स्वतंत्र होते ही रुकना चाहिए था। पर ऐसा हुआ नहीं। पहले छोटी-सी जगह पर बना यह स्मारक धीरे-धीरे भव्य रूप ग्रहण करता गया। इस स्मारक का विरोध भी होता रहा। 1959 में मुम्बई के धर्मार्थ मामलों के आयुक्त (चैरिटी कमिश्नर) ने ‘अफजल मेमोरियल तुर्बत ट्रस्ट’ को खारिज कर दिया । पर आयुक्त के इस आदेश का पालन नहीं हुआ। 1962 में "अफजल मेमोरियल सोसायटी" की स्थापना हुई। इस सोसायटी को राज्य की कांग्रेस सरकार ने 13,000 वर्ग फुट जमीन दे दी । उस पर सोसायटी ने 119 कमरे बनवाये, अफजल तथा सैयद बंडा की भव्य कब्रों बनायी गईं । वहां बिजली-पानी की व्यवस्था की गयी। धीरे-धीरे इस सोसायटी ने आसपास की 10,000 वर्ग फुट जमीन भी हड़प कर २३००० वर्ग गज कर ली । एक जमाने में मुम्बई के माफिया सरगनाओं हाजी मस्तान, करीम लाला तथा युसूफ पटेल ने इस सोसायटी की बहुत मदद की थी । बताया जाता है कि इस स्थान पर ज्यादा से ज्यादा मुसलमान आएं, इसलिए आने वाले को बिरयानी परोसी जाती थी तथा बख्शीश के रूप में 50 रुपए दिए जाते थे । महाबलेश्वर में जो पयर्टक जाते थे, उन्हें वहां का इतिहास बताने वाले मुसलमान गाइड बताते थे कि अफजल खान एक महान सूफी संत था, वह सज्जन तथा शांतिप्रेमी था । बाद में अफजल की कब्रा  पर हर साल उर्स मनाया जाने लगा । जिस दिन अफजल का वध हुआ, उस दिन हर साल मार्गशीर्ष शुद्ध सप्तमी को इस कब्रा का मुजावर (पुजारी) "दगा, दगा शिवाजी ने दगा किया" इस तरह जोर-जोर से चिल्लाता और छाती पीटते हुए प्रतापगढ़ से भागता आता था और ऐसा दृश्य उपस्थित करता था जैसे शिवाजी नाम के एक "अपराधी" ने ‘अफजल खान’ नाम के एक "सूफी संत" की हत्या की थी । अभी तक यहाँ ४० पुलिसकर्मी रहते है सरकार अब तक इन पर १.५ करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है | क्या कांग्रेस राष्ट्र को बताने का कष्ट करेगी की उसने क्षत्रपति शिवाजी के लिए क्या किया ||
(अफजल की पुरानी जर्जर कब्र और वर्तमान में कांग्रेस की मेहरबानी से बनी दरगाह) 


“कुरुक्षेत्र और ओरंगजेब ---- (ब्रह्म सरोवर, सन्नहित सरोवर, ज्योतिसर)”

       “कुरुक्षेत्र --- (ब्रह्म सरोवर, सन्नहित सरोवर, ज्योतिसर)”
कुरुक्षेत्र महाभारत का पवित्र एवं प्रमुख स्थान है | महाभारत युद्ध में गीता का ज्ञान यहीं भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया था | गीता का प्रथम श्लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे ------‘ से ही प्रारंभ होता है | महाकवि रामधारी सिंह दिनकर का महाकाव्य कुरुक्षेत्र को हिंदी के १०० टॉप काव्यों में ७४ वां  स्थान प्राप्त है | यह तीर्थ ब्रहम सरोवर, सन्निहित सरोवर और ज्योतिसर को मिलकर बना है |
विषय की बात करें तो ओरंगजेब ने अपने शासनकाल में अन्य हिन्दू तीर्थों की तरह कुरुक्षेत्र में कर लगा दिया था जो ४ आना एक लोटा जल और एक रूपया स्नान पर था, और ये कर स्वतंत्र भारत में कांग्रेसराज पर भी चलता रहा | १९६८ में गुलजारीलाल नंदा चुनाव लड़ने के लिए कुरुक्षेत्र पधारे | वहां उन्हें तीर्थ की दुरावस्था के बारे में पता चला | नंदा जी ने कुरुक्षेत्र के जीर्णोद्धार का बीड़ा उठाया | उन्होंने ‘कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड’ की स्थापना की नंदा जी स्वयम उसके चेयरमैंन बने | तीनो सरोवरों (ब्रह्म सरोवर, सन्निहित सरोवर और ज्योतिसर) का कायाकल्प हुआ | ओरंगजेब ने इस तीर्थस्थान का नाम भी परिवर्तित कर मुगलपुरा कर दिया था, जो नंदा जी के प्रयासों से पुराना नाम बदलकर पुरुषोत्तम पूरा कर दिया गया | साथ ही सभी कर भी हटा दिए गए | स्मरण रहे की गुलजारीलाल नंदा तीन बार भारत के प्रधान मंत्री रहे |
कुरुक्षेत्र पर लिखी गई दिनकर की काव्यपंक्ति हिंदी साहित्य की अनमोल कृति है जो अक्सर काव्य प्रेमी गुनगुनाते है ----- क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
                   उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल हो ||
छठी शताब्दी के भारत के प्रसिद्ध न्यायप्रिय राजा हर्ष की राजधानी थानेश्वर ( स्थानेश्वर) भी समीप है | सन्निहित सरोवर में पिंडदान का बड़ा महत्त्व है | कहते है की पौराणिक नदी सरस्वती भी यहीं  से प्रवाहित होती थी | ये बड़ा ही पुनीत स्थल है इसकी ८४ कोस की पौराणिक सीमा है | यहाँ की धूल भी प्राणी को पाप मुक्त करने की क्षमता रखती है | इसे बसाया भी महाराजा कुरु ने ही था इसी लिए इसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा | पुन्य स्थल होने के कारण ही यहाँ महाभारत लड़ा गया | यहाँ मरने वाला सीधा स्वर्ग जाता है | धन्य हैं गुलजारीलाल नंदा जिन्होंने इसका जीर्णोद्धार किया | सोमनाथ कुरुक्षेत्र का तो जीर्णोद्धार हो गया अयोध्या काशी मथुरा की बारी है |         
                                                                                                                                               






                                      "जाट आरक्षण और भाजपा"
चुनावी लाभ लेने के लिए २०१४ के लोकसभा चुनाव से एकदम पहले कांग्रेस ने जाट आरक्षण का कार्ड चला था | जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने ये कहते हुए कि जाति के आलावा शैक्षिक और आर्थिक आधार का भी ध्यान रखना चाहिए था मार्च १५ में अमान्य कर दिया | पहले से ही भाजपा से नाराज चल रहे जाटो को एक और भाजपा के विरुद्ध मुद्दा मिल गया | भाजपा ने आश्वासन दिया है साथ ही भाजपा के सांसदों मंत्रियों को जाटों को मनाने के लिए लगाया गया है | पर यहाँ ये विचार स्मरणीय है की भाजपा सुप्रीम कोर्ट के विरुद्ध कैसे जाएगी | भारत की राजनीति में एक शाहबानो प्रकरण हुआ था | जिसमे कांग्रेस ने संसद में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलट दिया | तब भाजपा ने इसे न्यायालय का अपमान कह कर कांग्रेस की  खिचाई की थी | और भाजपा आज भी उस मुद्दे को भूली नहीं है | अब भाजपा सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध किस मुंह  से जाएगी |
          क्या था शाहबानो प्रकरण --- एक ६२ वर्षीय मुस्लिम महिला शाहबानो को उसके पति ने १९७८ में तलाक दे दिया था | शरियत में तलाक आम बात है | पर शाहबानो भरण पोषण के लिए अदालत चली गई, और ये मुक़दमा ७ साल तक चलकर नीचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया | १२५ की दंड प्रक्रिया संहिता में "हर किसी को गुजरा भत्ता पाने का अधिकार है" ऐसा कह सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पति को गुजरा भत्ता देने का आदेश दिया | कट्टर पंथी मुसलमानों ने इस निर्णय को शरियत के खिलाफ माना और विरोध किया | १९८६ में दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गाँधी की सरकार थी आखिर उसे भी झुकना पड़ा और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को उलटते हुए "मुस्लिम महिला तलाक संरक्षण कानून १९८६" पास कर दिया | अब तलाक शुदा मुस्लिम महिला को गुजरा भत्ता नहीं  मिलेगा | तब से लेकर आज तक भाजपा इसे सुप्रीम कोर्ट का अपमान और कट्टर पंथियों के सामने कांग्रेस का झुकाना बताती है | अब ये ही काम भाजपा सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ जा कर कैसे कर सकती है | वैसे भी जाट २ से २`५ प्रतिशत है और १२ से १५ प्रतिशत संसाधनों का लाभ ले रहे है | दूसरी बात ये भी है की ओबीसी के  २७ % में ३ जातियां जाट, गुर्जर और यादव ही हावी है | शेष ओबीसी जातियां घाटे में है ऐसा इन जातियों का आरोप है |
यहाँ एक बात और स्मरणीय है की राजनाथ सिंह ने अपने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रित्व काल में ओबीसी के अंतिम पायदान की जातियों को लाभ देने के लिए ओबीसी के ३ टुकडे किये थे और आरक्षण को २७ से २८ % किया था  जिसमे ओबीसी की ८० जातियों का बंटवारा इस प्रकार किया था - (१) - पिछड़ा २ जातियां (५%), () - अति पिछड़ा ८ जातियां (९%) तथा (३) - अत्यंत पिछड़ा ७० जातियां १४% | राजनाथ सिंह ने अनुसूचित जातियों के अंतिम पायदान की जातियों को भी लाभ देने के लिए अ.जा. आरक्षण का भी विभाजन  किया था | जो इस प्रकार था अ.जा. की कुल जातियां ६८ | (१) - दलित ३ जातियां (१० %), () - अति दलित ६५ जातियां (११%) | ये एक सुन्दर व्यवस्था थी लेकिन चल नहीं पाई क्योंकि बाद की सरकार ने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया और राजनाथ सिंह का दोनों वर्गों के आरक्षण में अंतिम पायदान की जातियों को मिलने वाला लाभ नहीं मिल पाया साथ ही राजनाथ सिंह को भी राजनैतिक लाभ नहीं मिला |(जातियों के आंकड़े सन २००० के है ) |
पुन: जाट आरक्षण पर आते है | जाट सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को भाजपा की लचर पैरवी मान रहे है | परन्तु सच्चाई ये है की ये आरक्षण सु. को. के दरवाजे से बहार आना ही नहीं था ये तभी से प्रबुद्ध लोग और प्रबुद्ध जाट भी कह कर चल रहे थे | हर बुद्धिजीवी व स्वयं सुप्रीम कोर्ट भी कह रहा है की आरक्षण जातिगत नहीं आर्थिक आधार पर होना चाहिए पर राजनैतिक दलों के लिए वोटो का लालच ऐसा नहीं होने देता | जाटों का भाजपा से नाराजगी के अन्य कारन भी है, एक लोकदल का सत्ता शून्य होना और दूसरा जाट भवन खाली कराना | इस नाराजगी को लेकर जाट मोदी को माफ़ करने के मूड में नहीं दिखते | अत: जाट कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते | वैसे भी जाट आरक्षण  का लाभ किसी को नहीं मिला | भाजपा को इस समस्या का स्थाई, सर्वमान्य और सम्मानजनक हल खोजना होगा | साथ ही जाटों को सीमा से बाहर जाकर मनाना अन्य जातियों की नाराजगी का कारण न बन जाये भाजपा को इस बात को भी ध्यान में रख कर चलना होगा | मोर्य, शाक्य, कुशवाह आदि जातियां ने तो जाट आरक्षण का विरोध शुरू भी कर दिया है | ये गंभीर समस्या भाजपा के गले की हड्डी न बन जाये |||