Thursday 27 December 2018


                   “सम्राट खारवेल”
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद चेदी राजवंश का उदय हुआ, जिसकी शाखा से खारवेल 200 ईसा पूर्व महामेघवाहन वंश से तीसरे शक्तिशाली चक्रवर्ती सम्राट हुए | भारत के बहुत बड़े भूभाग को इन्होंने अपने बाहूबल से विजित किया | यह जैन मतावलंबी थे | पर इन्होने हिन्दू मंदिरों का भी निर्माण और जीर्णोद्धार कराया | उदय गिरी की पर्वत श्रंखला की हाथीगुफा में मिले एक शिलालेख में इनकी प्रशस्ती मिलती हैं | 24 वर्ष की आयु में इनका राज्याभिषेक हुआ | खारवेल ने मगध, मथुरा, सातकरणी, विदर्भ, पाण्ड्य, उत्तरापथ, राष्ट्रिकों, और भोजकों पर भी आधिपत्य स्थापित कर उत्तर, दक्षिण और पशचिम में अपना राज्य विस्तार किया | शताब्दियों तक फिर कभी कलिंग को ऐसा योग्य और शक्तिशाली शासक नसीब नहीं हुआ | खारवेलचेदीवंश और कलिंग के इतिहास के ही नहीं, सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है | हाथीगुंफा के अभिलेख से स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेनानायक था, और उसने कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई |
    भारत में अपने समय के दो बड़े साम्राज्य मगध और कलिंग रहे है | खारवेल से पहले एक बार मगध ताकतवर हुआ तो कलिंग पर चढ़ाई कर उसे हरा कलिंग की प्रसिद्द जैन संत शीतलनाथ की बड़ी स्वर्ण मूर्ति भी उठा लाया | लम्बे समय तक कलिंग को यह अपमान सालता रहा | कलिंग में खारवेल का युग आया | खारवेल ने मौका देखते ही मगध पर हमले की योजना बनानी शुरू कर दी | तब मगध पर ब्रहस्पतिमित्र का शासन था | तभी एक यवन डेमेट्रियस ने भी मगध पर हमले की योजना बना ली, और खारवेल पर सूचना भेजी की ‘यही अच्छा मौका है तुम पूरब से हमला कर मगध से अपना बदला लो और मैं पश्चिम से हमला कर दोनों मगध का अस्तित्व मिटा देते हैं’ | खारवेल को क्रोध आ गया और डेमेट्रियस को कहला भेजा की ‘तूने ये कैसे सोच लिया की मैं मगध के विरुद्ध तेरा साथ दे दूंगा ये हमारा आपसी मामला है | और तू भारत की सीमा में आया ही कैसे मैं पहले तुझे देखता हूँ’ |  खारवेल मगध को छोड़ यवन के पीछे भागा और यवन को सुदूर पश्चिम भारत की सीमा से बाहर खदेड़कर आया | इन दोनों के हमले की तैय्यारी से मगध के होस उड़ रहे थे | पर ये नया नजारा देख मगध के कुछ जान में जान आई | वापसी में मगध खारवेल के स्वागत को खड़ा था | उसने ग्लानि भरे मन से अपना राजमुकुट खारवेल के चरणों में रख दिया | ये स्थति देख खारवेल भी भावाभिभूत हो गया | और मगध को क्षमा कर दिया | कई दिनों तक मगध की मेहमान नवाजी स्वीकार की | चलते समय मगध ने बहुत सा नजराना और साथ में कलिंग से लाई गई जैन संत शीतलनाथ की मूर्ति भी ससम्मान वापस की | इसके बाद दोनों साम्राज्यों की मित्रता और वैभव पुनः लौट आया | 

Wednesday 19 December 2018


             “लाल बाई – भारत की एक अमर वीरांगना”
ये तब की बात है जब उत्तरी भारत पर सिंध के क्रूर शासक अहमद शाह का शासन था | उसके पास ही एक छोटी सी रियासत आहोर थी जिसके राजा पर्वतसिंह थे | जिनके एक अत्यंत रूपवती कन्या लालबाई थी | लालबाई के रूप के चर्चे अहमद शाह के दरबार तक पहुंचे | तो उसने राजा पर्वतसिंह को एक अपमानजनक और लज्जास्पद पत्र लिख भेजा कि “तुम अपनी बेटी हमारे हवाले कर दो हम उससे निकाह कर अपनी बेगम बनायेंगे |” जबकि उसके हरम में हजारों बेगमें पहले से थी | आहोर छोटा राज्य था सेना भी सीमित थी | फिर भी पर्वतसिंह ने शाह को उत्तर दिया कि “यदि कोई इस बेशर्मी से तुम्हारी बहु - बेटी मांगे तो तुम दोगे” ? उत्तर से बोखलाकर शाह ने आहोर पर आक्रमण कर दिया | कई दिनों तक चले युद्ध में आहोर के किले कि खाद्य सामग्री समाप्त होने लगी | कोई हल निकलता नहीं दिखाई दिया तो राजपूती सेना केसरिया बाना पहन रणक्षेत्र में अहमद शाह कि सेना पर मरने मारने को टूट पड़ी | युद्ध में राजा पर्वतसिंह उसका भाई और पर्वतसिंह का पुत्र जी जान से लडे पर संख्या में अति कम होने के कारण ज्यादा देर तक नही टिक पाए और खेत रहे | अहमद शाह किले में घुस गया | तो उसे उसने देखा कि किले में ऊँची ऊँची लपटें उठ रही हैं | किले कि सभी महिलाओं ने एक बड़ी सी चिता में कूद कर अपनी प्राणाहुति दे दी थी | अहमद शाह आवाक और हतप्रभ रह गया | और वापस लौट गया | कुछ समय बाद अहमद शाह को पता चला कि राजकुमारी तो जिन्दा है, और किसी राजपूत सरदार के यहाँ छुप कर रह रही है | पता चलते ही शाह ने अपना आदमी सरदार के पास भेजा कि “यदि जान प्यारी है तो राजकुमारी अहमद शाह को दे दे” | सरदार को बहुत क्रोध आया, पर आगे बढ़ स्वयं लालबाई ने रोक दिया अनावश्यक खून खराबे से अब कोई फायदा नहीं | वैसे भी वो अपने परिजनों के बलिदान से बेहद आहात थी और बदले कि भावना उसके दिमाग में घूम रही थी | अत: लालबाई ने सरदार से कहा कि “आप मेरे कारण कोई विपत्ति मोल ना लें | तथा मुझे शाह के पास जाने दें मै उससे निकाह को तैयार हूँ” | अब सरदार कि विवशता थी | भेजने कि तयारी हुई | उन दिनों एक प्रथा थी कि वर पक्ष से वधु के लिए और वधु पक्ष से वर के लिए वस्त्र आया करते थे | कहीं कहीं तो अब भी ये प्रथा है | अत: दोनों तरफ से वस्त्र आये और उनका आदान प्रदान हुआ | निकाह हुआ | निकाह के बाद अहमद शाह लालबाई के साथ चांदी झील के पास महल के उपरी हिस्से की बुर्जी पर चढ़कर जनता को दर्शन देने के पहुंचा | पर तभी एक चमत्कार हुआ की अचानक अहमद शाह के शरीर से तेज चिंगारी के साथ लपटें उठने लगी | और अहमद शाह जल उठा और कुछ कि देर में जल मरा | उधर लालबाई ने भी बुर्जी से चांदी झील में कूदकर अपने प्राणों कि आहुति दे दी | क्या हुआ कोई नहीं जान पाया | समाचार पूरी रियासत में फ़ैल गया | वो राजपूत सरदार समझ गया कि ये सब उस राजपूत ललना लालबाई कि करामात है जिसने अपने प्राण देकर अपने पिता और भाई की हत्या, तथा छीनी गई रियासत का बदला उस क्रूर लम्पट हत्यारे अहमद शाह से लिया है | आने वाली पीढ़ियों को लालबाई ने जता दिया कि समय आने पर भारत कि बेटियां भी अपने प्राणों कि बाजी लगाकर अहमद शाह जैसों को नरक का रास्ता दिखाने में पीछे नहीं रहती हैं | धन्य हैं ऐसी वीरांगना |

Monday 30 July 2018


                  “गंगा जमनी संस्कृति”
उत्तर प्रदेश के एक गाँव में मुस्लिमों को अपना एक पूजा स्थल बनना था, पर उपयुक्त स्थान नहीं मिल पा रहा था | मिली जुली आबादी के इस गाँव के उदार हिन्दू भाइयों को मुस्लिमों का दर्द समझ में आया और पूजा स्थल (मस्जिद) निर्माण हेतु अपना एक उपयुक्त भूखंड दे दिया | तो निर्माण कार्य शुरू हुआ और निर्माण की पहली ईंट भी पंडित जी से रखवाई गई | इस कार्य की सर्वत्र सराहना हुई और इसे गंगा ‘जमुनी - तहजीब’ की मिसाल बताया | भारत में अक्सर कहीं हिन्दू - मुस्लिम सद्भाव पाए जाने पर इसे तुरंत बिना देर किये गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल बता दिया जाता है | लेकिन क्या है ये गंगा और यमुना की तहजीब,  इससे तो ऐसा लगता है कि मानो गंगा - यमुना की संस्कृति अलग अलग है | पर क्या ऐसा है ?
   भारत में ये एक परंपरा सी हो गई है कि हिन्दू – मुस्लिम एकता की मिसाल मिलने पर तुरंत ‘गंगा जमुनी तहजीब’ का बिल्ला ठोंक दिया जाता है | इसका तात्पर्य यह है की गंगा की तहजीब अलग है, और जमुना की तहजीब अलग है | और दोनों एकदम विपरीत ध्रुव वाली | गंगा भारत की एतिहासिक, संस्कृतिक और भावनात्मक आस्था का आधार है | जो गोमुख से निलकर 2500 किलोमीटर मैदानी क्षेत्र में चलकर सुन्दरवन के डेल्टा में गंगा सागर तीर्थ पर बंगाल की खाड़ी में गिरती है | यमुना यमुनोत्री (हिमालय) से निकलकर गंगा की सहायक नदी के रूप में 1350 किलोमीटर चलती हुई इलाहाबाद में गंगा में मिल जाती है | लेकिन गंगा और यमुना एक ही संस्कृति की दोनों सगी बहने लगभग १०० किलोमीटर के फासले से देर तक दूर तक बिना एक दुसरे की भावना को ठेस पहुंचाए श्रोत से समागम तक साथ साथ बहती चली जाती है | जबकि हिन्दू - मुस्लिम संस्कृति का साथ कैसा है सब जानते है ? साथ साथ आरती और अजान नहीं हो सकती | मेरठ, मुजफ्फर नगर, सहारनपुर, बुलंदशहर आदि कई जिलों का पश्चिमी किनारा यमुना तो पूर्वी किनारा गंगा बनाये हुए है | एक जिले में भला दो संस्कृतियाँ कहाँ से हो गई | बागपत और गढ़मुक्तेश्वर एक भाषा खड़ी बोली, एक खानपान, एक रहन सहन, एक ही पहनावा तो है, फसल से लेकर मौसम तक सब एक है | ये सब सैकुलरवादियों की रणनीति का एक हिस्सा है | एक नदी भारत की और एक अरब, अफगान या ईरान, इराक की होती तो बात बन सकती थी | हमारी दोनों नदियाँ पवित्र और पुरातन है इनकी कोख में इतिहास जन्मा है, पला और बढ़ा है | स्वामी कल्याण देव का जन्म कोताना (बागपत) यमुना की कोख में हुआ, और उनका व्यक्तित्व को शुक्रताल में गंगा किनारे विस्तार मिला | ऐसे अनेक संत ॠषि मुनि हमारी परंपरा में देखे जा सकते है | जन्म यहाँ तो कर्म वहां और कर्म वहां तो जन्म यहाँ | फिर गंगा यमुना की संस्कृतियाँ अलग अलग और वो भी विपरीत कैसे हो गई ? ये सैकुलरवादियों की घिनोनी चाल है | राष्ट्रवादियों को उनकी इस चाल का शिकार नहीं होना चाहिए | हिन्दू – मुस्लिम सद्भाव को कोई और नाम दिया जा सकता है पर गंगा जमुनी तहजीब कतई स्वीकार नहीं | दोनों नदिया अपने में पुरातन अमूल्य संस्कृति संजोये है |


Saturday 21 July 2018

मेला नौचंदी --- 2



               “मेला नौचंदी”--- 2 
  
मेले के प्रसिद्द द्वार :-
(1) - शम्भूदास द्वार :- मेरठ – हापुड़ मार्ग पर नौचंदी मेले का सबसे पुराना, भव्य और लम्बे समय तक एकमात्र द्वार रहा | इसे श्रीमती बिशनदेवी ने अपने पति स्व. श्री शम्भूदास जो पेशकर थे, की स्मृति में सन 1921 ई. में बनवाया था | यह आज भी मेले का मुख्य द्वार है | इससे सटकर ही मेले का बाजार लगता था | आज तो मेले ने बड़ा रूप धारण कर लिया है |
(2) - इंदिरा द्वार :- मेरठ - गढ़मुक्तेश्वर मार्ग की ओर से मेला नौचंदी जाने के लिए इंदिरा द्वार से ही मेले में प्रवेश होगा | यह द्वार प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गाँधी की याद में सन 1985 ई. में बवाया गया था | गढ़मुक्तेश्वर रोड की और से आने वाले इसी मार्ग का प्रयोग करते है |
(3) - शहीद द्वार :- इस द्वार का निर्माण जिला परिषद् ने सन 1966 ई. में जिले के उन शहीद सैनिकों की स्मृति को चिरस्थाई रखने को कराया था, जिन्होंने 1964 ई. के भारत –पाक युद्ध में मात्रभूमि पर प्राण न्योछावर किये थे | इस बड़े द्वार में 2 छोटे उपद्वार एक मेजर रणबीर सिंह द्वार और दुसरे मेजर आसाराम त्यागी द्वार के नाम से जाने जाते है | इस द्वार पर उन 47 अफसर और जवानों के नाम भी अंकित है जिन्होंने युद्ध में प्राण न्योछावर किये थे| 
(4) - विजय द्वार :- मेरठ - हापुड़ मार्ग पर शम्भूदास द्वार से आगे विजय द्वार है | अत्याधुनिक स्थापत्य के आधार पर बने इस द्वार का निर्माण 1972 ई. में संयुक्त मेला नौचंदी समिति ने कराया था | इस द्वार का निर्माण 1971 ई. के भारत – पाक युद्ध, या बांग्लादेश निर्माण में मारे गए भारतीय सैनिकों की याद में उनकी क़ुरबानी को अमर रखने को कराया गया था | इस युद्ध में मेरठ के 74 सैनिक घायल हुए थे | इस द्वार का उद्घाटन भारत के प्रथम फिल्ड मार्शल जनरल एस एच ऍफ़ जे मानेकशा ने किया था | इस द्वार पर बड़ा सा राष्ट्रिय ध्वज बना है |
मेले के प्रसिद्द स्थल :-
(1)   - चंडी देवी का मंदिर और (2) - बाले मियां की मजार का वर्णन तो ऊपर कर आये है |
(2)   – जय जवान जय किसान स्तम्भ – भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की याद में उनके प्रिय उद्घोष जय जवान जय किसान को प्रतीक के रूप में बनाया गया | जिसमे एक जवान एक हाथ में शस्त्र एक किसान हाथ मे गेंहू की बाली और दोनों एक एक हाथ से राष्ट्रिय ध्वज को एक साथ पकडे हुए हैं |
(3)   – अशोक स्तम्भ - मेला क्षेत्र के मध्य में अहिंसा का सन्देश देती सम्राट अशोक के प्रसिद्द अशोक स्तम्भ की अनुकृति लगी है | इसके शीर्ष पर भारत का राज चिन्ह बना है | 
(4)   – डा. आंबेडकर की प्रतिमा – भारत के संविधान निर्माण में अग्रणी डा. भीमराव आंबेडकर की भी आदमकद प्रतिमा मेला क्षेत्र में लगी है |
(5)   – पटेल मंडप – मेला क्षेत्र में होने वाली संस्कृतिक गतिविधियों का स्थल पटेल मंडप है | इसमे संगीत, नृत्य, कवि सम्मलेन, मुशायरा, पंजाबी कवि दरबार आदि कार्यक्रम होते है | पहले इसका नाम दरबार हाल था | 1951 ई. में नौचंदी के अवसर पर इसका नाम बदल कर शहर के मशहूर उद्द्योगपति न्यादर अली के नाम पर कर दिया गया | जिसका विरोध मेला देखने गए राजेन्द्र पाल गोयल और महाबीर प्रसाद आदि कुछ युवा छात्रों ने किया, धरना दिया | गिरफ्तार हुए मुकदमा हुआ |  उनकी मांग थी की किसी महापुरुष  के नाम पर हाल का नया नामकरण हो | छात्रों की मांग पर दरबार हाल का नाम बदलकर सरदार पटेल के नाम पटेल मंडप कर दिया गया | ये नौचंदी मेले का संक्षिप्त ज्ञात इतिहास है |




                       
                           



Wednesday 4 July 2018


               
"चेरामन पेरूमल जुमा मस्जिद”
अयोध्या में राम मंदिर का न होना और बाबरी मस्जिद का होना हिंदुओं के लिए गहन टीस का विषय है | हिन्दुओं के मस्तिष्क पर कलंक के सामान है | हो भी क्यों न आखिर एक आततायी बाबर ने भव्य राममंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद जो बनाई थी | पीढ़ियों से हिन्दू इस कलंक को ढो रहे हैं | पर यहाँ तो आक्रान्ता ने बलात छीनकर मस्जिद बनाई | पर भारत की तो पहली मस्जिद भी मंदिर पर ही 629 ई. में बनी और आज तक खड़ी भी है | केरल के कोंडगलुर तालुका त्रिशुर जिले के मेथला गाँव में स्थित है ये चेरामन पेरूमल जुमा मस्जिद | इसे भारत की प्रथम और विश्व की दूसरी जुमा मस्जिद होने का सौभाग्य प्राप्त है | दरअसल इसके साथ कई स्मृतियाँ भी जुडी है | एक तो यह मोहम्मद साहब के जीवन काल में ही बन गई थी | दुसरे अरब के बहार बनने वाली भी यह पहली मस्जिद है | एक बार केरल का व्यापारी चेरामन अरब में व्यापर और तीर्थ यात्रा को गए | वहां जेद्दा में इस्लाम प्रचारकों से इनकी मुलाकात हुई | तो इस्लाम से प्रभावित होकर मुसलमान बन गया | और वहां के राजा की बहन से शादी कर वहीं बसकर ताजुद्दीन नाम रख लिया | मरने से पहले चेरामन ने जेद्दा के शासक को केरल और कोंडगलुर के राजा के नाम कुछ पत्र लिखकर दिए | जिनमे इस्लाम के प्रचारकों को केरल में धर्म प्रचार करने की छूट और रहने व नमाज आदि को स्थान देने की बात कही थी | इन्ही पत्रों के आधार पर कोंडगलुर के राजा ने बाद में इस्लाम प्रचारकों (मोलवियों) को मेथला गाँव का अरतली मंदिर दे दिया | जिसे मोलवियों ने जुमा मस्जिद में बदलकर नमाज पढ़ना शुरू कर दिया, पर धर्म निरपेक्षता की मिसाल के तौर पर नाम चेरामन पेरूमल जुमा मस्जिद ही रहने दिया जो आज तक चल रहा है | चूँकि निर्माण हिन्दू कारीगरों ने किया था | तो कला और वास्तुशिल्प पर हिन्दू शैली की स्पष्ट झलक मिलती है | वैसे भी मस्जिद का अधिकांश भाग तो मंदिर का ही था | मस्जिद के साथ 3 मुस्लिम प्रचारकों \ मोलवियों की कब्रें भी है | दरसल केरल के मालाबार तट से मोहम्मद साहब के बहुत पहले से भारत और अरब देशों के व्यापारिक रिश्ते थे | ये क्षेत्र भारतीय मसालों का बड़ा व्यापारिक केंद्र था | जो विश्व को अपनी ओर आकृष्ट करता था | मस्जिद की प्रबंध समिति के अध्यक्ष मोहम्मद सईद का कहना है की मस्जिद का भीतरी भाग आज भी 15 वी शती का है | तब इसमे बोद्ध धर्म की पूजा होती थी | अब इसको यथा संभव पुराने स्वरूप में लोटने की तैयारी चल रही है |        

Monday 11 June 2018


  Bottom of Form
Bottom of Formनौचंदी मेला मेरठ” 
 चंडी या नवचंडी मंदिर :- नौचंदी मेले का सारा इतिहास, आकर्षण और रौनक चंडी मंदिर के ही आस पास है | पश्चिमोत्तर भारत के प्रसिद्द मेलों में से एक मेरठ का प्रसिद्ध मेला नौचंदी भी है | नौचंदी के दो प्रमुख भाग है | चंडी या नवचंडी मंदिर का पूजन और बाले मियां की मजार का उर्स | होली के बाद ऋतू परिवर्तन की बेला में शरत और बसंत ऋतू के संधि अवसर पर बासंतिक नवरात्रों पर चैत्र मॉस में होली के बाद दुसरे रविवार से लगने वाला मेला कभी नवचंडी देवी के पूजन - अर्चन के एक दिवसीय अनुष्ठान तक ही सीमित था | कहते है की माता सती के अरु भाग के यहाँ गिरने पर चंडी मंदिर बनाया गया | दिल्ली के पास होने के कारण मेरठ भी निरंतर युद्धों, हमलो, आक्रमण और लूटों का शिकार होता रहा | मंदिर भी इतिहास के साथ साथ लुटता, बनता, बिगड़ता रहा | चंडी मंदिर टूटकर जब दोबारा बना होगा तो नवचंडी कहलाया होगा | और फिर नवचंडी से ही अपभ्रंश होकर नौचंदी हो गया होगा | इंदोर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा भी मंदिर बनाये जाने के प्रमाण हैं | ये हिन्दुओं की आस्था का बड़ा केंद्र था|
बाले मियां की मजार :- सालार मसूद गाजी ये महमूद गजनी का भांजा था | ये भी गौरी, गजनी, अब्दाली की तरह क्रूर आक्रान्ता था | 1030 ई. में गजनी की मृत्यु के बाद ये भी लाखों की सेना लेकर भारत को लूटने आया | दिल्ली, मेरठ, बुलंदशहर, कन्नोज को रोंदता हुआ श्रावस्ती - बहराईच के शुद्र शासक महाराजा सुहेलदेव पासी से जा भिड़ा | और सेना सहित मारा गया | बहराइच में इस क्रूर आक्रान्ता की बड़ी मजार है, जिसे हिन्दू बड़ी संख्या में पूजते है | मेरठ पर हमले के समय चंडी मंदिर के पुजारी की बेटी ने इसकी चार अंगुलियां काट दी थी | जिसकी मजार ये बाले मियां की माजर है | इसका मुसलमान बड़ी श्रद्धा से उर्श मानते है |
दोनों पूजा स्थल साथ साथ है, इसलिए ये हिन्दू मुस्लिमो के सम्मिलित विश्वासों का प्रतीक बन एकता और सद्भाव की मिसाल बन गया | एक मान्यता के अनुसार 17 वीं शताब्दी 1672 ई. में मेले का शुभारम्भ हुआ | 1857 की क्रांति तक मेला एक दिवसीय ही था | भारी संख्या में हिन्दू सिद्धि दायिनी माँ चंडीदेवी के दर्शन, पूजन, मन्नत को आते थे | रात्रि हो जाने के कारण उन्हें यहीं रुकना पड़ता था | कालांतर में बाले मियां की माजर पर भी उर्श होने लगा | १८८० ई, तक मेला 2 दिवसीय छोटा स्वरूप लिए रहा | धीरे धीरे मेले का स्वरूप धार्मिक से सामाजिक भी होने लगा | आमोद प्रमोद के साथ साथ घरेलु जीवन की आवश्यक वस्तुओं के मिलने का स्थान भी मेला बन गया | 1884 ई. में घोड़ों की प्रदर्शनी भी लगने लगी | पहले मेले का प्रबंध क्षेत्र के बड़े रईस जमींदार और नवाब करते थे | 1884 ई. से ही मेला सरकारी प्रबंधन में चला गया |


Bottom of Form
तब मेले में नवाबों, रईसों और जमींदारों के आलिशान डेरे लगा करते थे | मेला सात दिन का हो
गया था | नाच और राग रंग की महफिलें सजती थीं | विख्यात नाटक कम्पनियाँ एल्फ्रेड,
शालिवाहन, न्यू एल्फ्रेड मेले में आती थीं | नर्तकी मुन्नीबाई का रुतबा लम्बे समय तक चला | मेले में बाजार लगने लगे | सर्कस काफी पहले से मेले की रौनक हैं | अब मेला लगभग एक माह का हो गया | हलवा, परांठा, खजला और नानखटाई मेले की प्रसिद्द सौगात है | मेले में कुछ प्रसिद्द द्वार है तो कुछ प्रसिद्द स्थल भी हैं | ,,,,,,,,,,,,,


Saturday 5 May 2018


                संस्कृत महान (किरातार्जुनियम) -– १
किरातार्जुनियम संस्कृत के 3 महाकाव्यों (व्रहद्त्रयी) में से एक महाकवि भारवि रचित प्रसिद्द महाकाव्य है | पांडवों के अज्ञातवास के समय महाभारत युद्ध को आवश्यक जान अर्जुन दिव्यास्त्रों की प्राप्ति हेतु स्वर्ग लोक जाते है | वहां शिवजी से भी पाशुपतास्त्र लाना है | तो शिवजी किरात युवक बनकर अर्जुन की परीक्षा लेते हैं | ये छोटा सा विषय महाभारत के वन पर्व का है | जिसे भारवि ने बृहद कर महाकाव्य का रूप दिया |
किरातार्जुनियम के एक पिछले श्लोक में हमने देखा की 4 स्वर (अ, आ, उ, ए,ओ वो भी लघु आ को छोड़कर कोई दीर्घ नहीं |) और एक व्यंजन न के द्वार महाकवि भारवि ने खूबसूरती से एक छंद की रचना कर दी | इस छंद की विशेषता है की लम्बवत या पंक्तियाँ ऊपर नीचे बदलकर भी पढ़ने से छंद का भाव नहीं बदलता है | इसे अलंकर की भाषा  में सर्वतोभद्र छंद (सभी और से ठीक) कहा जाता है | नीचे देखें -----
सर्वतोभद्र छंद
देवकानिनि कावादे
वाहिकास्वस्वकाहि वा ।
काकारेभभरे काका
निस्वभव्यव्यभस्वनि॥15:25
इसकी विशेषता है कि (1) चारों पंक्तियों के हर अक्षर को ऊपर से नीचे पढ़ने पर भी वही चारों पंक्तियाँ बन जाती हैं | और (2) यदि क्रम उलट दिया जाए, यानी चौथी पंक्ति को पहली, तीसरी को दूसरी, दूसरी को तीसरी और पहली को चौथी लिखकर पढ़ा जाए तो वही छंद बन जाता है | इस तरह लम्बवत ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर पढ़ने पर भी छंद बदलता नहीं | इसीलिए इसे सर्वतोभद्र (सभी तरफ़ से ठीक) कहा गया है |
(1)
दे वा का नि नि का वा दे
वा हि का स्व स्व का हि वा |
का का रे भ भ रे का का
नि स्व भ व्य व्य भ स्व नि ||
(2)
नि स्व भ व्य व्य भ स्व नि
का का रे भ भ रे का का |
वा हि का स्व स्व का हि वा
दे व का नि नि का वा दे ||
अर्थ :- [ हे युद्धकामी पुरुष ! यह युद्ध का मैदान है जो देवताओं तक को उत्प्रेरित कर देता है | यहां युद्ध शब्दों का नहीं, प्राणों का है | क्योंकि लड़ते समय लोग प्राणों को दाँव पर लगाते हैं, और अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए | यह मैदान मदमत्त हाथियों के झुंडों से भरा रहता है और कौवों को निमंत्रण देता है | यहाँ उन्हें जो युद्ध के लिए उत्सुक हैं और उन्हें भी जो नहीं हैं, लड़ना ही पड़ता है ||


Saturday 28 April 2018


             “संस्कृत महान” (किरातारजुनीयम)
 संस्कृत के काव्य सौन्दर्य की जितनी प्रशंसा की जाय कम है | उसकी एक बानगी भर प्रस्तुत कर रहे हैं | जो केवल संस्कृत में संभव है | सातवीं शती के संस्कृत के महाकवि भारवि रचित काव्यरचना किरातार्जुनीयम से ली गई है | किरातार्जुनियम संस्कृत के 6 महाकाव्यों की व्रहत्त्रयी का एक प्रसिद्द महाकाव्य है | (दरसल संस्कृत के 6 महाकाव्य हैं 3 व्रह्त्त्रयी (किरातार्जुनियम – भारवि, शिशुपाल वध – माघ, और नैषधीयचरितम – श्री हर्ष, कहलाते हैं | इसी प्रकार 3 लघुत्रयी कालिदास रचित कुमारसंभव, रघुवंशम, मेघदूतम, कहलाते हैं | किरातार्जुनियम का विषय महाभारत के वनपर्व के 5 अध्यायों से लिया गया है | पांडव द्युतक्रीडा में हारकर वनवास को चले जाते हैं | महाभारत अवशम्भावी लगने लगता है | द्रोपदी तो बार बार युद्ध को तैयार रहने को कहती है | एक बार महऋषि व्यास भी कहते है कि हे पांडूपुत्रो तुम्हे युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए | सो अर्जुन इंद्र से अमोघ दैवीय अस्त्र - शस्त्र लेने को जाते है | वहीं शिवजी से पासुपतास्त्र भी लाना है | शिव किरात युवक बनकर अर्जुन परीक्षा लेते हैं | इनमे युद्ध होता है | यह लघु कथा उपरोक्त महाकाव्य विषय है | जिसे कवि ने अपने काव्य सौन्दर्य से सजा कर एक व्रहद महाकाव्य का रूप दे दिया | इसकी 37 टीकायें मिलती है | जिनमे मल्लिनाथ की टीका प्रसिद्द है | अंग्रेजी में भी 6 अनुवाद पाए जाते हैं | विषय इस प्रकार है कि, शुरू के दौर में अर्जुन वाण-वर्षा से सामने की शिव की गण सेना को तितर-बितर कर देता है | 15वें सर्ग में, जिसमें युद्ध का यह चरण आता है, भारवि ने चित्रकाव्य (अलंकारिक छंद) का प्रयोगकर महाकाव्य के दायरे के भीतर एक नई परम्परा का सूत्रपात किया है | अर्थ-प्रवाह को अक्षुण्ण रखते हुए भाषा के स्तर पर यह एक कठिन काम है | बानगी के तौर पर चित्रकाव्य का एक अपेक्षाकृत सरल उदाहरण प्रस्तुत है :----
एकाक्षर छंद :--
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।
नुन्नोsनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्‌॥15:14
अन्वय एवं शब्दार्थ:--
हे नानानना (अनेक मुखोंवाले) ऊननुन्न: (नीच पुरुषों से पराजित) ना न (मनुष्य नहीं है) | नुन्नोन: ना अना (नीच पुरुषों को पराजित करनेवाला मनुष्य नहीं है) | ननुन्नेन: (जिसका स्वामी पराजित न हुआ हो) नुन्न: (पराजित) अनुन्न: (अपराजित) नुन्ननुन्ननुत्‌ =नुन्न+नुन्न+नुत्‌ ( अति पीड़ित को भी पीड़ा पहुँचानेवाला) ना अनेना: न ( मनुष्य निर्दोष नहीं)|
भावार्थ :--- [(अर्जुन से हारकर भागती हुई गण-सेना को संबोधित करते शिवपुत्र कार्तिकेय कहते हैं) हे अनेक मुखोंवाले गण लोग ! जो नीच पुरुषों से पराजित हो जाता है | वह मनुष्य नहीं है, तथा जो नीच पुरुषों को पराजित करता है, वह भी मनुष्य नहीं है | युद्ध में जिसका स्वामी अभी पराजित नहीं हुआ है | वह शिकस्त पाने के बावजूद पराजित नहीं कहा जाता | अति पीड़ित को पीड़ा पहुँचानेवाला मनुष्य निर्दोष नहीं (अपितु नीच) है | ]
किसी भी छंद में कई कई स्वर होते हैं और अनेक व्यंजन होते है | तब जाकर छंद बनता है | परन्तु इस छंद में स्वर और व्यंजन का प्रयोग तो किया गया है | पर स्वर में भी अ आ उ ए और ओ का ही प्रयोग किया गया है | वो भी लघु, आ को छोड़कर दीर्घ का प्रयोग भी नहीं किया गया | तथा व्यंजन में तो मात्र न का ही प्रयोग हुआ है | इसीलिये इसे एकाक्षर छंद कहा गया है | सिर्फ एक व्यंजन से छंद बनाना अपने आप में टेढ़ी खीर है | जिसे भारवि ने किरातार्जुनियम के उपरोक्त छंद में कर दिखाया है |


Wednesday 18 April 2018


                                       
          मेरा भारत महान :--
मेरा भारत यूँ ही महान नहीं है इसमे लाखों सालों की त्याग बलिदान और ऋषि मुनि व संतों की तपस्या का परिणाम है | मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को राज्याभिषेक होने वाला था | २ वचन लेकर बीच में कैकेयी आ जाती है | महाराजा दशरथ विवश हो जाते हैं | राम को पता चलता है स्वयम पिता दशरथ की विवशता देख राम निस्पृह भाव से वन गमन का वरन करते है | जबकि सब कोई बीच का रास्ता तलाश रहे थे | भरत वापस आते है | भारत को राजसिंहासन देने की बात होती है | लेकिन भरत ने भी एक पल के लिए भी राज्य स्वीकार नहीं किया | तभी तो राम हनुमान से कहते है == ‘तुम मम प्रिय भरत सम भाई’ | लक्षमण ने १४ साल वन में साथ गुजारे पर भरत सम भाई | कैसा निस्प्रह भाव था | राम ने युद्ध जीतकर लंका लक्षमण को भेजा की अपनी भाभी सीता को ले आओ और विभीषण का राज्याभिषेक कर आओ तथा रावण से कुछ ज्ञान की बातें भी पूछ लेना | लक्ष्मण कहता है की ‘भैया देखो वो सोने की लंका’ राम उत्तर देते हैं कि == ‘अपि स्वर्ण मई लंका न मे रोचते लक्ष्मण, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ ‘लक्षमण यद्यपि ये सोने की लंका है पर मुझे नहीं रोचती मेरे लिए तो जननी और जन्म भूमि ही स्वर्ग से भी बढकर है’ | राम ने लंका की ओर कोई बुरी दृष्टि नहीं डाली | जबकि राम का पूरा अधिकार था उस पर शासन करने का | बाली वध पर कुछ मुर्ख राम पर बाली का धोखे से वध का आरोप लगते है | उन्हें ये नहीं पता की युद्ध में सब उचित ही होता है | फिर बाली को वरदान प्राप्त था, कि युद्ध करते समय सामने वाले का आधा बल बाली में आ जायेगा | फिर तो बाली मरना ही असंभव था | लेकिन बाली पापी था अन्यायी था तो उसका मरना आवशक था | बाली को मारकर राम ने सुग्रीव को स्वतंत्र शासक बनाया | साथ ही बाली की पत्नी तारा पटरानी बनाई और बलि पुत्र अंगद को सेनापति बनाया | उस राज्य को छुआ भी नहीं | सारा राजपाट सुग्रीव को दे दिया | द्वापर में कृष्ण ने कंस को मारकर मथुरा का शासन बार बार मना करने पर भी स्वयं न लेकर कंस के वृद्ध पिता महाराजा उग्रसेन को ही दे दिया था | मगध के शक्तिशाली नरेश जरासंध को मारकर उसके पुत्र सहदेव को मगध का शासक बनाया | एक दिन इसी जरासंध के कारण कृष्ण को मथुरा छोड़ना पड़ा था और रणछोड़जी कहलाये | फिर कृष्ण और भीम और अर्जुन जरासंध को उसके के घर मगध पर ही जाकर उसको द्वंद युद्ध में मारकर आये थे |
शिशुपाल ने भरी सभा में सभी का अपमान किया था | भीष्म, कुंती से लेकर युधिष्ठिर तक किसी को नहि छोड़ा था | बलराम को भी क्रोध आ गया था | पर कृष्ण ने कुछ नहीं कहा था | क्योंकि कृष्ण ने शिशुपाल की माँ जो कृष्ण की बुआ और कुंती की बहन श्रुतिश्रवा थी, को शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करने का वचन दे रखा था | १०१ वी गाली पर कृष्ण का सुदर्शन चल गया और शिशुपाल का सर धड से अलग हो गया | यहाँ भी उसका राज्य किसी ने छुआ नहीं | उसी सभा में जो महाराजा युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के लिए आहूत थी | उस में उपस्थित शिशुपाल के पुत्र महिपाल का राज्याभिषेक कर दिया गया | ऐसी महान गरिमामई परम्परा थी अपनी |