Monday 30 July 2018


                  “गंगा जमनी संस्कृति”
उत्तर प्रदेश के एक गाँव में मुस्लिमों को अपना एक पूजा स्थल बनना था, पर उपयुक्त स्थान नहीं मिल पा रहा था | मिली जुली आबादी के इस गाँव के उदार हिन्दू भाइयों को मुस्लिमों का दर्द समझ में आया और पूजा स्थल (मस्जिद) निर्माण हेतु अपना एक उपयुक्त भूखंड दे दिया | तो निर्माण कार्य शुरू हुआ और निर्माण की पहली ईंट भी पंडित जी से रखवाई गई | इस कार्य की सर्वत्र सराहना हुई और इसे गंगा ‘जमुनी - तहजीब’ की मिसाल बताया | भारत में अक्सर कहीं हिन्दू - मुस्लिम सद्भाव पाए जाने पर इसे तुरंत बिना देर किये गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल बता दिया जाता है | लेकिन क्या है ये गंगा और यमुना की तहजीब,  इससे तो ऐसा लगता है कि मानो गंगा - यमुना की संस्कृति अलग अलग है | पर क्या ऐसा है ?
   भारत में ये एक परंपरा सी हो गई है कि हिन्दू – मुस्लिम एकता की मिसाल मिलने पर तुरंत ‘गंगा जमुनी तहजीब’ का बिल्ला ठोंक दिया जाता है | इसका तात्पर्य यह है की गंगा की तहजीब अलग है, और जमुना की तहजीब अलग है | और दोनों एकदम विपरीत ध्रुव वाली | गंगा भारत की एतिहासिक, संस्कृतिक और भावनात्मक आस्था का आधार है | जो गोमुख से निलकर 2500 किलोमीटर मैदानी क्षेत्र में चलकर सुन्दरवन के डेल्टा में गंगा सागर तीर्थ पर बंगाल की खाड़ी में गिरती है | यमुना यमुनोत्री (हिमालय) से निकलकर गंगा की सहायक नदी के रूप में 1350 किलोमीटर चलती हुई इलाहाबाद में गंगा में मिल जाती है | लेकिन गंगा और यमुना एक ही संस्कृति की दोनों सगी बहने लगभग १०० किलोमीटर के फासले से देर तक दूर तक बिना एक दुसरे की भावना को ठेस पहुंचाए श्रोत से समागम तक साथ साथ बहती चली जाती है | जबकि हिन्दू - मुस्लिम संस्कृति का साथ कैसा है सब जानते है ? साथ साथ आरती और अजान नहीं हो सकती | मेरठ, मुजफ्फर नगर, सहारनपुर, बुलंदशहर आदि कई जिलों का पश्चिमी किनारा यमुना तो पूर्वी किनारा गंगा बनाये हुए है | एक जिले में भला दो संस्कृतियाँ कहाँ से हो गई | बागपत और गढ़मुक्तेश्वर एक भाषा खड़ी बोली, एक खानपान, एक रहन सहन, एक ही पहनावा तो है, फसल से लेकर मौसम तक सब एक है | ये सब सैकुलरवादियों की रणनीति का एक हिस्सा है | एक नदी भारत की और एक अरब, अफगान या ईरान, इराक की होती तो बात बन सकती थी | हमारी दोनों नदियाँ पवित्र और पुरातन है इनकी कोख में इतिहास जन्मा है, पला और बढ़ा है | स्वामी कल्याण देव का जन्म कोताना (बागपत) यमुना की कोख में हुआ, और उनका व्यक्तित्व को शुक्रताल में गंगा किनारे विस्तार मिला | ऐसे अनेक संत ॠषि मुनि हमारी परंपरा में देखे जा सकते है | जन्म यहाँ तो कर्म वहां और कर्म वहां तो जन्म यहाँ | फिर गंगा यमुना की संस्कृतियाँ अलग अलग और वो भी विपरीत कैसे हो गई ? ये सैकुलरवादियों की घिनोनी चाल है | राष्ट्रवादियों को उनकी इस चाल का शिकार नहीं होना चाहिए | हिन्दू – मुस्लिम सद्भाव को कोई और नाम दिया जा सकता है पर गंगा जमुनी तहजीब कतई स्वीकार नहीं | दोनों नदिया अपने में पुरातन अमूल्य संस्कृति संजोये है |


Saturday 21 July 2018

मेला नौचंदी --- 2



               “मेला नौचंदी”--- 2 
  
मेले के प्रसिद्द द्वार :-
(1) - शम्भूदास द्वार :- मेरठ – हापुड़ मार्ग पर नौचंदी मेले का सबसे पुराना, भव्य और लम्बे समय तक एकमात्र द्वार रहा | इसे श्रीमती बिशनदेवी ने अपने पति स्व. श्री शम्भूदास जो पेशकर थे, की स्मृति में सन 1921 ई. में बनवाया था | यह आज भी मेले का मुख्य द्वार है | इससे सटकर ही मेले का बाजार लगता था | आज तो मेले ने बड़ा रूप धारण कर लिया है |
(2) - इंदिरा द्वार :- मेरठ - गढ़मुक्तेश्वर मार्ग की ओर से मेला नौचंदी जाने के लिए इंदिरा द्वार से ही मेले में प्रवेश होगा | यह द्वार प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गाँधी की याद में सन 1985 ई. में बवाया गया था | गढ़मुक्तेश्वर रोड की और से आने वाले इसी मार्ग का प्रयोग करते है |
(3) - शहीद द्वार :- इस द्वार का निर्माण जिला परिषद् ने सन 1966 ई. में जिले के उन शहीद सैनिकों की स्मृति को चिरस्थाई रखने को कराया था, जिन्होंने 1964 ई. के भारत –पाक युद्ध में मात्रभूमि पर प्राण न्योछावर किये थे | इस बड़े द्वार में 2 छोटे उपद्वार एक मेजर रणबीर सिंह द्वार और दुसरे मेजर आसाराम त्यागी द्वार के नाम से जाने जाते है | इस द्वार पर उन 47 अफसर और जवानों के नाम भी अंकित है जिन्होंने युद्ध में प्राण न्योछावर किये थे| 
(4) - विजय द्वार :- मेरठ - हापुड़ मार्ग पर शम्भूदास द्वार से आगे विजय द्वार है | अत्याधुनिक स्थापत्य के आधार पर बने इस द्वार का निर्माण 1972 ई. में संयुक्त मेला नौचंदी समिति ने कराया था | इस द्वार का निर्माण 1971 ई. के भारत – पाक युद्ध, या बांग्लादेश निर्माण में मारे गए भारतीय सैनिकों की याद में उनकी क़ुरबानी को अमर रखने को कराया गया था | इस युद्ध में मेरठ के 74 सैनिक घायल हुए थे | इस द्वार का उद्घाटन भारत के प्रथम फिल्ड मार्शल जनरल एस एच ऍफ़ जे मानेकशा ने किया था | इस द्वार पर बड़ा सा राष्ट्रिय ध्वज बना है |
मेले के प्रसिद्द स्थल :-
(1)   - चंडी देवी का मंदिर और (2) - बाले मियां की मजार का वर्णन तो ऊपर कर आये है |
(2)   – जय जवान जय किसान स्तम्भ – भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की याद में उनके प्रिय उद्घोष जय जवान जय किसान को प्रतीक के रूप में बनाया गया | जिसमे एक जवान एक हाथ में शस्त्र एक किसान हाथ मे गेंहू की बाली और दोनों एक एक हाथ से राष्ट्रिय ध्वज को एक साथ पकडे हुए हैं |
(3)   – अशोक स्तम्भ - मेला क्षेत्र के मध्य में अहिंसा का सन्देश देती सम्राट अशोक के प्रसिद्द अशोक स्तम्भ की अनुकृति लगी है | इसके शीर्ष पर भारत का राज चिन्ह बना है | 
(4)   – डा. आंबेडकर की प्रतिमा – भारत के संविधान निर्माण में अग्रणी डा. भीमराव आंबेडकर की भी आदमकद प्रतिमा मेला क्षेत्र में लगी है |
(5)   – पटेल मंडप – मेला क्षेत्र में होने वाली संस्कृतिक गतिविधियों का स्थल पटेल मंडप है | इसमे संगीत, नृत्य, कवि सम्मलेन, मुशायरा, पंजाबी कवि दरबार आदि कार्यक्रम होते है | पहले इसका नाम दरबार हाल था | 1951 ई. में नौचंदी के अवसर पर इसका नाम बदल कर शहर के मशहूर उद्द्योगपति न्यादर अली के नाम पर कर दिया गया | जिसका विरोध मेला देखने गए राजेन्द्र पाल गोयल और महाबीर प्रसाद आदि कुछ युवा छात्रों ने किया, धरना दिया | गिरफ्तार हुए मुकदमा हुआ |  उनकी मांग थी की किसी महापुरुष  के नाम पर हाल का नया नामकरण हो | छात्रों की मांग पर दरबार हाल का नाम बदलकर सरदार पटेल के नाम पटेल मंडप कर दिया गया | ये नौचंदी मेले का संक्षिप्त ज्ञात इतिहास है |




                       
                           



Wednesday 4 July 2018


               
"चेरामन पेरूमल जुमा मस्जिद”
अयोध्या में राम मंदिर का न होना और बाबरी मस्जिद का होना हिंदुओं के लिए गहन टीस का विषय है | हिन्दुओं के मस्तिष्क पर कलंक के सामान है | हो भी क्यों न आखिर एक आततायी बाबर ने भव्य राममंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद जो बनाई थी | पीढ़ियों से हिन्दू इस कलंक को ढो रहे हैं | पर यहाँ तो आक्रान्ता ने बलात छीनकर मस्जिद बनाई | पर भारत की तो पहली मस्जिद भी मंदिर पर ही 629 ई. में बनी और आज तक खड़ी भी है | केरल के कोंडगलुर तालुका त्रिशुर जिले के मेथला गाँव में स्थित है ये चेरामन पेरूमल जुमा मस्जिद | इसे भारत की प्रथम और विश्व की दूसरी जुमा मस्जिद होने का सौभाग्य प्राप्त है | दरअसल इसके साथ कई स्मृतियाँ भी जुडी है | एक तो यह मोहम्मद साहब के जीवन काल में ही बन गई थी | दुसरे अरब के बहार बनने वाली भी यह पहली मस्जिद है | एक बार केरल का व्यापारी चेरामन अरब में व्यापर और तीर्थ यात्रा को गए | वहां जेद्दा में इस्लाम प्रचारकों से इनकी मुलाकात हुई | तो इस्लाम से प्रभावित होकर मुसलमान बन गया | और वहां के राजा की बहन से शादी कर वहीं बसकर ताजुद्दीन नाम रख लिया | मरने से पहले चेरामन ने जेद्दा के शासक को केरल और कोंडगलुर के राजा के नाम कुछ पत्र लिखकर दिए | जिनमे इस्लाम के प्रचारकों को केरल में धर्म प्रचार करने की छूट और रहने व नमाज आदि को स्थान देने की बात कही थी | इन्ही पत्रों के आधार पर कोंडगलुर के राजा ने बाद में इस्लाम प्रचारकों (मोलवियों) को मेथला गाँव का अरतली मंदिर दे दिया | जिसे मोलवियों ने जुमा मस्जिद में बदलकर नमाज पढ़ना शुरू कर दिया, पर धर्म निरपेक्षता की मिसाल के तौर पर नाम चेरामन पेरूमल जुमा मस्जिद ही रहने दिया जो आज तक चल रहा है | चूँकि निर्माण हिन्दू कारीगरों ने किया था | तो कला और वास्तुशिल्प पर हिन्दू शैली की स्पष्ट झलक मिलती है | वैसे भी मस्जिद का अधिकांश भाग तो मंदिर का ही था | मस्जिद के साथ 3 मुस्लिम प्रचारकों \ मोलवियों की कब्रें भी है | दरसल केरल के मालाबार तट से मोहम्मद साहब के बहुत पहले से भारत और अरब देशों के व्यापारिक रिश्ते थे | ये क्षेत्र भारतीय मसालों का बड़ा व्यापारिक केंद्र था | जो विश्व को अपनी ओर आकृष्ट करता था | मस्जिद की प्रबंध समिति के अध्यक्ष मोहम्मद सईद का कहना है की मस्जिद का भीतरी भाग आज भी 15 वी शती का है | तब इसमे बोद्ध धर्म की पूजा होती थी | अब इसको यथा संभव पुराने स्वरूप में लोटने की तैयारी चल रही है |