Friday 24 June 2016

                        “नकली किला पर असली लड़ाई”
 आज से लगभग ५०० वर्ष पूर्व राजस्थान की घटना है तब बूंदी पर हाडा राजा हामा का राज था | बूंदी पहले चित्तोड़ रियासत के अधीन रही | परन्तु अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के बाद चित्तोड़ के पराक्रमी राणा शक्तिहीन हो गए तो बूंदी ने चित्तोड़ की अधीनता अस्वीकार कर दी | कुछ वर्षों बाद राणा फिर शक्तिशाली हो गए तो उन्हें बूंदी की याद आई और बूंदी कहला भेजा कि चित्तोड़ की अधीनता स्वीकार कर लो | बूंदी नरेश हामा ने दूत के हाथो वापस कहला भेजा की अब पहले वाले दिन नहीं रहे और बूंदी स्वतंत्र है और रहेगी | हाँ हम चित्तोड़ को बड़ा भाई मानते है इससे ज्यादा आशा चित्तोड़ ना करे | चित्तोड़ के राणा ये सुनने को थोड़े ही बैठे थे उन्होंने तुरंत सेनापति को बुलाया और बूंदी पर युद्ध का आदेश दे दिया | पर अब वो पहले वाली बूंदी नहीं थी राणाओं की बड़ी सेना बूंदी के ५०० सौ हाडाओं के हाथो हार गई |
   राणा अपमानित हुए और हार का बदला लेने को तत्पर रहने लगे | राणा ने क्रुद्ध हो शपथ ली की जब तक बूंदी नहीं जीत लूँगा अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा | सेनापति सोच मे पड गए की इतनी जल्दी ये संभव ही नहीं है वैसे भी बूंदी चित्तोड से ४० मील दूर थी | सेना एकत्र करना और युद्ध जीतना एक दो दिन का काम नहीं तब तक राणा तो भूखो मर जायेंगे | अत: सभी दरबारी और मंत्रियों और बंधू बांधव ने मिल सर्व सम्मति से एक ही युक्ति सबको उचित लगी जिसमें दोनों बातों का समाधान था | और सभी एकत्र होकर राणा के पास जाकर कहने लगे की महाराज एक ही युक्ति है कि एक नकली किला बना कर फतह कर लिया जाय तो बात बने | सभी के एकमत होने पर राणा को भी प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा |
    अब चित्तोड़ के पास ही एक मैदान में नकली किले का निर्माण शुरू हुआ | फाटक, गेट, बुर्ज दीवार सब बूंदी की तरह | बूंदी के हाडा राजाओं की ही एक हाडा खाप की सैन्य टुकड़ी चित्तोड़ सेना में भी थी | कुम्भा वैरसी इस टुकड़ी का सरदार था | शिकार से लोटते समय उसने मैदान में नकली बूंदी का किला बनते देखा तो निर्माणकर्ताओं से पूछा की क्या हो रहा है ? कर्मचारियों ने बता दिया कि राणा के प्रण को पूरा करने के लिए ये सब हो रहा है | कुम्भा वैरसी ने साथियों सहित मात्रभूमि की रक्षा का प्राण लिया | अस्त्र शस्त्र से लैस हो वहां पहुचे कुछ समय बाद राणा भी अपनी छोटी सी सेना लेकर किला फतह करने पंहुचा | राणा ने एक टुकड़ी को कृत्रिम युद्ध के लिए किले में भेज दिया | कुम्भा भी साथियों के साथ किले में छुप गया था | गोली चलनी शुरू हुई तो अन्दर से असली गोली आती देख राणा का माथा ठनका | पता लगाया तो राणा दंग रह गया की कुम्भा तो पूरी तय्यारी से मुख्य द्वार पर ही पहरा दे रहा है | राणा ने पूछा की ‘कुम्भा क्या बात है तुम यहाँ क्या कर रहे हो’ तो कुम्भा ने क्रोधित हो कहा की “महाराज मै तो अपनी मात्रभूमि की रक्षा कर रहा हूँ | बूंदी मेरी मात्रभूमि है किला असली हो या नकली इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता |” कुम्भा की बात सुन राणा अवाक रह गया और कहने लगा कि कुम्भा तुम मेरे सैनिक हो | यह नकली किला है इसके लिए अपने प्राणों की बाजी क्यों लगा रहे हो |” कुम्भा ने उसी लहजे में राणा को जवाब दिया कि “महाराज निसंदेह मैं आपका चाकर हूँ आपका हर हुक्म मेरे सर माथे पर परन्तु मात्रभूमि के साथ ये बेहूदा मजाक मुझे सहन नहीं | मेरे जीते जी कोई बूंदी की और आँख भी नहीं उठा सकता |” कुम्भा ने आगे कहा “महाराज मेरी पगड़ी बिछी है उसी पर पैर रख कर चले आइये और नकली किला तोड़ दीजिये पर किला तोड़ने से पहले आपको युद्ध तो लड़ना ही होगा | आपके स्वागत को हाडी जाती का आपका ये तुच्छ सेवक  कुम्भा तैयार खड़ा है |” देखते ही देखते घमासान युद्ध शुरू हो गया | कुम्भा और साथियों ने अपने जीते जी किसी को नकली किले में नहीं घुसने दिया | ये वीरगति को प्राप्त हुए इनकी लाशों से गुजरकर ही राणा को किले में प्रवेश मिला |

     इस सबसे राणा का प्रतिज्ञा पालना तो हो गया | राणा ने पानी भी लिया | पर राणा कुम्भा और उसके दल वीरता और मात्रभूमि प्रेम तथा मान मर्यादा की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देने की भावना देखकर सहम गया | साथ ही चित्तोड़गढ़ ने बूंदी पर आगे कभी हमले के बारे में सोचा भी नहीं ||     

Friday 6 May 2016

“एकलव्य का अंगूठा और दलित चिन्तक”

                 
                  “एकलव्य का अंगूठा  और दलित चिन्तक”         

               भारत में अपने शासन को स्थायित्व और प्रमाणिकता प्रदान करने के लिए अंग्रेजों ने शक्ति के साथ बुद्धि का भी भरपूर प्रयोग किया | इसी अवधारणा को बल प्रदान करने के लिए उन्होंने आर्यों का भारत में बहार से आना बताया | और धीरे धीरे समाज में, शिक्षा में, संस्कृति में, पुरातन सांस्क्रतिक वांग्मय में अपने स्वार्थ को सिद्ध और स्थापित करने वाली बाते स्थापित करनी शुरू कर दी | क्योकि भारतीय जनमानस सहज स्वीकार कर ले तो हमारे पुरातन ग्रंथो को तोड़ मरोड़ कर नई नई बाते उनमे डालनी शुरू कर दी | इससे उन्हें हिन्दू समाज में भेद पैदा करने का अवसर भी मिल गया | और हिन्दू समाज में ही उन्होंने अपने अनुगामी भी पैदा कर लिए | क्योकि अंग्रेजी कालखंड आते - आते संस्कृत के जानकर उँगलियों पर ही रह गए थे अत: संस्कृत ग्रंथो का अपने अनुसार अनुवाद कराने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई | दलितों के बारे में वैसे तो उस समय व्यवहार में काफी विसंगतिय फैली थी सवर्ण - अवर्ण में गतिरोध था | ये विसंगति परिस्थिति के कारण थी पर अंग्रेजो ने इसे शास्त्र सम्मत सिद्ध करने का भरपूर प्रयास किया और उसका लाभ उठाया | उन बातो में दलित चिन्तक भी उलझ गए और आज दलित राजनीति करने वाले भी उसी राह पर चल पड़े है | इसी के चलते ये लोग सवर्णवाद, ब्राह्मणवाद और मनुस्मृति को जीभरकर कोसते है | वैसे इतिहास में उन्हें बहुत ज्यादा कुछ तो नहीं मिलता पर “राम का शुद्र शम्बूक को मारना”, रामायण की “ढोल गंवार शुद्र पशु नारी” वाली चोपाई और गुरु द्रोणाचार्य द्वारा “एकलव्य का अंगुठा गुरु दक्षिणा में मांगना” आदि |
       अभी हम यहाँ केवल एकलव्य की ही चर्चा करेंगे | एकलव्य के विषय में इन लोगों का कहना है की एक स्वर्ण ब्राह्मण गुरु द्रोणाचार्य ने एक शुद्र बालक एकलव्य का अंगूठा इस लिए गुरु दक्षिणा में मांग लिया की पांडवो यानि राजपुत्रो का कोई प्रतिस्पर्धी न रहे | और एक शूद्र अच्छा तीरंदाज न बन सका | या बनने से रोक दिया | इस प्रश्न का उत्तर यदि थोड़ी सी भी मेहनत करे तो हमें महाभारत में ही मिल जायेगा है | देखें एक बार परशुराम जेष्ठ की दोपहरी में कर्ण की जंघा पर सर रखकर सो रहे रहे थे कि कर्ण को बिच्छु जहरीला कीड़ा काट लेता है | काफी खून निकलता है पर कर्ण इस असहनीय दर्द को सहज भाव से अविचिलित होकर सह जाते है | अचानक रक्त की गर्मी महसूस कर परशुराम की आँख खुल जाती है तो देखते है कर्ण सहज भाव से दर्द सह रहा है और उफ़ तक नहीं की | तब उन्हें कर्ण पर शक होता है और पूछते है की कर्ण तूने ब्राह्मण युवक के नाते मुझसे शिक्षा ग्रहण की है | पर तू ब्राहमण नहीं है इतना कष्ट ब्राह्मण बालक नहीं क्षत्रिय बालक ही सह सकता है बता तू कौन है ? पर कर्ण को तो अपना पता ही नहीं था तो बताता क्या ? तब परशुराम कहते है कि तू निश्चित ही क्षत्रिय है | और तब परशुराम कर्ण को निर्विकार भाव से श्राप देते है की “छल – कपट और धोखे से प्राप्त की गई शिक्षा फलदाई नहीं होती कर्ण | और तूने भी छल से शिक्षा ग्रहण की है जा कर्ण जब तुझे इस शिक्षा की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी तब ये तेरा साथ नहीं देगी |” और एक दिन कुरुक्षेत्र में लड़ते हुए रेत में रथ का पहिया धसने के कारण इसी श्राप के चलते कर्ण मारा जाता है |’ एक ब्राहमण एक क्षत्रिय की मौत का कारण बनता है इस बात की कोई चर्चा भी नहीं करता | एकलव्य ने भी छल और धोखे से शिक्षा ग्रहण की थी || दूसरी बात एकलव्य सव्यसाची था याने दोनों हाथो से तीर चलाने में माहिर | और तीर संधान में सीधे हाथ के अंगूठे का इतना महत्त्व होता ही नहीं जितना की तर्जनी और माध्यमा अँगुलियों का | जो घ्रणा आज के दलित चिंतकों के मन में है वह एकलव्य के मन में भी होनी चाहिए थी पर लेशमात्र भी एकलव्य के मन में नहीं थी | क्योंकि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में एकलव्य अतिथि गणों के मध्य विराजमान था | एक बात और एकलव्य जरासंध के सेनापति का पुत्र था | ये बाते उसे सहानुभूति का पात्र नहीं बनाती है |
  महाभारत का ही एक अन्य प्रसंग भी इसी सन्दर्भ में विचारणीय है | कृष्ण और बर्बरीक का | ‘महाभारत युद्ध की घोषणा हो जाती है | योद्धा अपनी अपनी दिशा तय कर कुरुक्षेत्र की ओर बढ़ते हैं | वीर बालक बर्बरीक भी माँ से स्वीकृति ले कि “हारने वाले की ओर से ही युद्ध करूँगा” कुरुक्षेत्र के लिए चल पड़ता  है | कृष्ण को पता चलता है की ये तो अजेय है युद्ध की बाजी पलट देगा | अत: परीक्षा लेते है | कृष्ण ब्राह्मण का वेश धारण कर बर्बरीक को रास्ते में रोक कर पीपल के पेड़ के सारे पत्ते बींधने की परीक्षा लेते है | एक पत्ता कृष्ण ने पैर से छुपा रखा था तीर सारे पत्ते बींधकर अंततः पैर के चक्कर लगाने लगा | बर्बरीक ने कहा महाराज पैर हटा लो वरना ये तुम्हारे पैर को क्षति पहुँचा देगा | बर्बरीक के पास केवल तीन ही बाण थे पर ये त्रिलोक विजय के लिए काफी थे | कृष्ण ये बात जानते थे | अत: इस ब्राह्मण ने बालक बर्बरीक से दान की इच्छा व्यक्त की | बालक ने सहर्ष स्वीकार कर लिया | कृष्ण ने तुरंत दान में बर्बरीक का शीश मांग लिया | बालक हतप्रभ रह गया | पर वचन की तो हाँ कर चुका था | बर्बरीक समझ गया की तेरा सामना किसी आम मनुष्य से नहीं हुआ है | अत: उसने ब्राह्मण से वास्तविक स्वरूप में आने को कहा | कृष्ण वास्तविक स्वरूप में आये और बताया की बड़ा युद्ध होने जा रहा है अत: किसी बड़े वीर की बलि युद्ध भूमि को चाहिए थी भला आपसे उपयुक्त और कौन हो सकता है इस काम के लिए | तब बर्बरीक की इच्छानुसार कृष्ण ने उसे अपने विराट स्वरूप के दर्शन भी कराये और वरदान भी दिया की ‘तू कलियुग में मेरे नाम से पूजा जायेगा’ | तब बर्बरीक ने अपनी इच्छा भी बताई कि मैं तो युद्ध देखने के लिए आया था | कृष्ण ने कहा तेरी ये इच्छा मै पूरी करूँगा और उसका सर एक ऊँचे टीले पर स्थापित कर दिया जाता है | यहाँ एक ब्राह्मण एक क्षत्रीय बालक का सर यूँ ही बातों - बातों में ले लेता है | पर कभी किसी को चर्चा करते सुना क्या ? बर्बरीक के मन में भी कोई विद्वेष कृष्ण के प्रति नहीं था | इसका उदहारण भी महाभारत में ही है | युद्ध के अंत में विजय का श्रेय लेने को पांडवो में अहंकार आ जाता है की युद्ध मेरे कारण जीता गया | तब कृष्ण ही समाधान निकलते है की एक व्यक्ति है बर्बरीक का शीश जिसने सारा युद्ध देखा है सही निर्णय वो ही कर सकता है | सब लोग बर्बरीक के शीश के पास जाते है | शीश बताता है की ‘मुझे तो पूरे युद्ध में कृष्ण का सुदर्शन चक्र की घुमाता, रक्त बहता, सर धड से अलग करता नजर आ रहा था | युद्ध का असली विजेता तो कृष्ण ही है |’ यदि बर्बरीक के मन में जरा भी कृष्ण के प्रति विद्वेष होता तो वो विजेता अपनी सर कलम करने वाले को ही बताता क्या ?

      गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य तथा कर्ण को भी शिक्षा देने से मना कर दिया था क्योकि कर्ण एक सारथि अधिरथ का पुत्र था | द्रोणाचार्य ने कहा था कि मै राजकुमारों को ही शिक्षा देता हूँ | एक और बात गुरु द्रोणाचार्य कुलगुरु थे | वे क्यों चाहेंगे की राजपरिवार का कोई प्रतिस्पर्धी हो ? वे तो चाहेंगे की उनका शिष्य ही विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो | ओर उसके लिए वो निरंतर प्रयासरत भी रहे | इन्होने इसीलिए एकलव्य और कर्ण को शिक्षा देने से मना भी कर दिया, क्योंकि फिर दोनों के साथ न्याय नहीं कर पाते | एक बात और यदि आज हम निष्पक्षता से विचार करें तो देखेगें की सारा ज्ञान ब्राह्मणों के पास था | देवताओं के बाद परशुराम, विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि के पास सर्वोच्च शास्त्र और शस्त्र ज्ञान था | पर ये लोग कभी चक्रवर्ती सम्राट नहीं बने बल्कि राजकुमारों को ही बनाया | चाणक्य एक बालक को मिट्टी से उठाकर चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मोर्य बना देते हैं | दूसरी बात शस्त्र ज्ञान हमेशा राजकुलों के अधीन ही तो रहे और रहने चाहिए भी | क्या आज भी कोई रिवोल्वर या कोई अन्य हथियार लेकर चल सकता है | सरकारें लाइसेंस देती है | तब जाकर कोई शस्त्रधारी बनता है | कोई बड़े हथियार के बारे में तो सोंच भी नहीं सकता | आज भी ‘इसरो’ या ‘डीआरडीओ’ का कोई कर्मचारी अपने संसथान की जानकारी बाहर दे सकता है | या कोई प्रशिक्षण दे सकता है’ नहीं | फिर एकलव्य क्यों पारंगत हो | आगे चलकर हस्तिनापुर साम्राज्य के लिए कांटा बने | ऐसा गुरु द्रोणाचार्य क्यों चाहते ? जरा सोचें मे और आप भी नहीं कर पाते | कोई भी आएगा और शस्त्र सञ्चालन में निपुण हो जायेगा | यहाँ एकलव्य या कर्ण का प्रश्न नहीं है ये तो सीधे साम्राज्य के निष्कंटक और सर्वोच्चता का है | कोई कुछ भी सोचे वो अलग बात है | 

Friday 15 April 2016

 अम्बेडकर का सच । जिसे आप सभी को जानना जरूरी है:--

निसंदेह दलितों पर सवर्ण हिन्दुओं के असहनीय अत्याचारों का दूसरा नाम ही डा. अम्बेडकर है | पर आज जो नाम, पहचान, सम्मान, बाबा साहेब का है वो भी सवर्णों के कारण ही है | ये नहीं भुलना चाहिए इन सवर्णों के बिना बाबा साहेब कहीं अँधेरे में खो गए होते | दलित नेता जब बाबा साहब डा. अम्बेडकर पर भाषण देते हैं तब बड़ी धूर्तता से उन व्यक्तियों का नाम ही नही लेते जिसने उन्हें "बाबा साहब भीमराव रामजी अम्बेडकर" बनाया । बड़ोदरा रियासत के महाराजा सयाजी गायकवाड को एक चिठ्ठी मिलती है । जिसमे एक युवक ने लिखा था की वो दलित है पढाई करने के लिए ब्रिटेन और अमेरिका जाना चाहता है, लेकिन धनाभाव के चलते संभव नही हैं और कोई भी उसकी मदद नही कर रहा है । चिठ्ठी के साथ अंक तालिकाएं (Mark Sheets) भी संलग्न (Attach) थी । चिठ्ठी पढ़ते ही महाराजा सयाजी गायकवाड़ ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया और उन्हें ब्रिटेन और अमेरिका पढने के लिए पूरा खर्चा ही नहीं दिया बल्कि रहने का इंतजाम भी महाराजा ने किया | और तो और जब बाबा साहब डा.  अम्बेडकर PHD करके वापस आये तो कोई भी उन्हें नौकरी नही दे रहा था, तब एक बार फिर महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने उनका साथ दिया और उन्हें अपनी रियासत का महामंत्री नियुक्त किया और उस जमाने में उन्हें दस हजार रुपये महीने वेतन दिया जो आज दस करोड़ के बराबर है । लेकिन गाँव गाँव जो तथाकथित अम्बेडकरवादी घूमते हैं वो दलितों को ये बात नही बताते । वो तो छोड़िए उनका पूरा नाम भी बहुत कम लोग जानते है | इसी प्रकार डा. अम्बेड्कर के ब्राह्मण गुरु महादेव अंबेडकर ने ही दिया था उन्हे अम्बेड्कर उपनाम दिया | 1894 में भीमराव अंबेडकर जी के पिता सेवानिवृत्त हो गए और इसके दो साल बाद, अंबेडकर की मां भीमा बाई की मृत्यु हो गई | तो बाबा साहेब के १४ भाई बहनों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की । रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों मे जीवित बच पाए। अपने भाइयों और बहनों मे केवल अंबेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुये। अपने एक देशस्थ  ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम "अंबावडे" पर आधारित था। उनकी दूसरी पत्नी सविता अम्बेडकर भी ब्राह्मण थी |

Wednesday 17 February 2016

                  “सिंधपति राजा दाहिर सैन”
सम्राट दाहिर सैन आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत के उत्तर पश्चिम के प्रसिद्ध ब्राह्मण राजा थे | उस समय के सिंधराज्य में आज का जम्मू कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, और पाकिस्तान सहित अधिकांश उत्तर पश्चिम भारत शामिल था | दाहिर सेन के योग्य शासन से सिंधप्रान्त उन्नति और सुख शांति को प्राप्त था | अरब के मुस्लिम लुटेरो और आक्रान्ताओं को सिंध के वैभव से ईर्ष्या होने लगी | अत: सिंध को लूटने और इस्लामिकरण को व्याकुल रहने लगे | ऐसे में अरब के खलीफा ने सिंध और हिन्द के विरूद्ध जिहाद की घोषणा कर ने ७१२ ई में अपने भतीजे (जो उसका दामाद भी था) मोहम्मद बिन कासिम को विशाल सेना के साथ सिंध पर हमले के लिए भेजा | उसने कूटनीति का प्रयोग कर सिंध की बोद्ध आबादी को अहिंसा का वास्ता दे अपनी और कर लिया | बोद्धो ने यवनों को खाने पीने के सामान से लेकर धन और गुप्त सूचनाएं तक पहुंचाई | कासिम ने ‘देवल’ नामक बंदरगाह पर आक्रमण कर दाहिर की सेना को ललकारा | तो दोनों सेनाओं की मुटभेड़ ‘ब्राहमणाबाद’ के मैदान में हुई | अरबों की सेना के पास तोपें और ‘मजनोक’ नामक दुरमारक यंत्र भी था | इस युद्ध को हिन्दूवीर बहादुरी से लडे पर अपने ही लोगों की गद्दारी के चलते जीती बाजी हार गए | इसी समय दाहिर का हाथी बिगड़ गया और एक तीर दाहिर को लगा दाहिर घायल हो गए और 20 जून ७१२ ई. को ये वीर योद्धा रनभूमि में वीर गति को  प्राप्त हुआ | तब दाहिर की पत्नी ने भी महिलाओं और बची पुरुष सेना को साथ लेकर ‘रावर’ के किले से संघर्ष किया | जितना हो सकता था इस सेना ने मारकाट मचा दी | लेकिन हारी बाजी को जीत में परिवर्तित न करा सकी | अंततः बाजी अपने हाथ से जाते देख रानी को अपनी साथिनों के साथ जोहर करना पड़ा | सिंध पर कासिम का कब्ज़ा हो गया उसने मनमाने ढंग से लुटा और खुला धर्मान्तरण कर हिन्दुओं का मुसलमान किया |

           कासिम सिंध से हजारों हिन्दू बहन - बेटियों को जिनमे राजा दाहिर की दो युवा पुत्री सूरज और परमल भी थी, को दासी बना कर खलीफा को भेंट करने के लिए बगदाद ले गया | इनके शोर्य, बलिदान और बुद्धि चातुर्य की गाथा इतिहास प्रसिद्द है | दोनों बहनों को खलीफा के सामने पेश किया गया | चतुराई से दोनों बहनों ने खलीफा से कहा कि ‘आपके पास भेजने से पहले कासिम ने तो हमारा सतीत्व भंग कर दिया है तो क्या आप जूठन खाना पसंद करेंगे’ | यह सुन खलीफा आग बबूला हो गया और आदेश दिया की बैल की खाल में सिल कर कासिम को मेरे पास लाया जाये | आदेश का पालन हुआ और मोहम्मद बिन कासिम मारा गया | बाद में सूरज और परमल ने बताया की ‘कासिम तो निर्दोष था दरअसल हमने तो अपने पिता की हत्या और राज्य छिनने का बदला कासिम से लिया है’ | इतना कह दोनों बहनों ने तुरंत एक दुसरे को क़टार मार कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली | और दुश्मन की धरती पर दुश्मन से बदला ले लिया | साथ ही अपना नाम इतिहास में अमर कर दिया | आगे चलकर पृथ्वीराज चौहान ने ११९२ ई. में दुश्मन की धरती पर दुश्मन से इसी तरह का बदला ||