Friday 29 December 2017

                  “हस्तिनापुर”
पवित्र नदी गंगा के तट पर बसा हस्तिनापुर भारत के इतिहासिक गौरव तथा आर्थिक और संस्कृतिक समृद्धि का देदीप्यमान नक्षत्र है | हस्तिनापुर चन्द्रवंशीय क्षत्रिय चक्रवर्ती सम्राटों की राजधानी रहा है | आज भले ही इतिहास की कालगति और राजनैतिक उपेक्षा का शिकार होकर हस्तिनापुर विस्मृति के गर्त में समा गया हो | पर फिर भी अपनी तात्कालिक समृधि, गौरव और वैभव के कारण हस्तिनापुर की थाती आज भी अक्षुण्ण है | चन्द्रवंशीय सम्राट महाराजा हस्ती द्वारा बसाया गया यह महाजनपद कुरु, भरत और शांतनु व पांडू से होता हुआ धृतराष्ट्र के हाथों हाथों में पहुंचा | महाभारत युद्ध के बाद चक्रवर्ती सम्राट महाराजा धर्मराज युधिष्ठिर के कुशल हाथों में पहुंचकर पुन: अपनी कीर्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुचा | महाभारत के कारण हस्तिनापुर से अनेक भाग्य - दुर्भाग्य इससे जुड़ते चले गए तो महाराजा परीक्षत ने हस्तिनापुर से 25 किलोमीटर दूर दक्षिण में परिक्षतगढ बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया | तभी से उपेक्षा का शिकार हो हस्तिनापुर का पतन शुरू हो गया | और आज भी इस गौरवमई थाती की कोई सुध लेने वाला नहीं है |
  1952 ई. में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने A S I के अधिकारी बी. बी. लाल के नेतृत्व में हस्तिनापुर की खुदाई कराई थी | कहते है 30 फुट तक तो मुग़लकालीन अवशेष मिले और इसके बाद 40 तक पांडव कालीन अवशेष मिले | अवशेष आगरा संग्राहलय में रखवा दिए गए | लेकिन बाद में खुदाई अधूरी छोड़कर काम समाप्त करा दिया गया | खुदाई बंद करने के पीछे क्या कारण रहे राम जाने | दरसल नेहरू परिवार और कांग्रेस को भारतीय संस्कृति और गौरव से एलर्जी थी | उन्होंने कभी भारतीय संस्कृति का सम्मन नहीं किया | उलटे अपमान किया | इसी परिपेक्ष्य में ये खुदाई बंद कराई गई | ताकि भारत का कोई गौरवमई एतिहासिक प्रष्ठ विश्वपटल पर न आ जाय | इसी के चलते रामयणकालीन किसी स्थान की खुदाई नहीं की गई | महाभारत का कोई पन्ना नहीं उखेडा गया | मेरठ, बरनावा, बागपत, आलमगीरपुर सनौली और न जाने कितने ऐसे स्थान है जो चीख चीख कर कह रहे हैं हमारे सीने में न जाने कितने राज दफ़न है खोलकर देखो | सरस्वती सभ्यता, सिन्धु सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता. इनकी तह तक जाना चाहिए था | पर कुछ नहीं हुआ | अटलजी ने अपने कार्यकाल में ‘सरस्वती नदी शोध संसथान’ स्थापित किया था | सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग की शोध करनी थी हरियाणा में बहुत बड़ा काम हो चूका था | अटलजी की सरकार गई तो ये विभाग भी बंद | अटल जी ने ‘सिन्धु दर्शन’ का एक कार्यक्रम शुरू किया था | कांग्रेस ने उसे भी बंद कर दिया | अभी 10 सालों में मेरठ, बागपत, शामली के क्षेत्र में अनेकों पुराने स्थल और टीले मिले है | हरियाणा में सरस्वती का भूमिगत प्रवाह मिला है | पर कहीं कोई कार्य नहीं हुआ | कहने का तात्पर्य यह है की कांग्रेस ने इस दिशा में कोई कार्य करने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई | इसे हम कांग्रेस के सेकुलर स्वरूप के कारण भी मान सकते है | हम विश्व की सर्व श्रेष्ठ सभ्यता हैं | हमें इस पर गर्व है | पर विश्व को दिखने के लिए हमारे पास है क्या ? हुमायूं का मकबरा ? यदि उस दिशा में काम हुआ होता तो आजादी के 70 सालों बाद भी अब तक रामायण और महाभारत मिथक बनकर ही न खड़े रहते हमारे सामने | विश्व को दिखाने के लिए उनसे जुडी अब तक हमारे पास सैंकड़ों साइटे होती | 

     हस्तिनापुर पर्यटक का बड़ा केंद्र होता | शोधार्थियों के लिये बड़ा आकर्षण होता | पर सब शून्य है | भला हो जैनियों का कि उन्होंने हस्तिनापुर को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया | हस्तिनापुर तो द्वापर और कलियुग के संधिकाल की सभ्यता है | पर चलो वर्तमान मोदी और योगी की सरकारें कुछ करेंगी | रामायण और महाभारत सर्किट विकसित होंगे | और खुदाई होगी तथा कुछ समय बाद हमारे पास रामायण, महाभारत पुस्तकों के आलावा उनके तथ्यात्मक साक्ष्य भी होंगे ||        

Thursday 30 November 2017

                “राम जन्म भूमि विवाद”
राम जन्म भूमि में करोड़ों हिन्दुओं की आस्था और आत्मा दोनों बसती है | पर देश आजाद होने के ७० साल बाद भी भारत की सेकुलर सरकारें हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ करती रही | नई पीढ़ी तो आज इस विषय को जानती भी नहीं है | देश की सेकुलर सरकारों ने इस विषय को विस्मृति के गर्त में डुबो देना चाहा | पर अब ऐसा नहीं होगा सरकारें भी हिन्दू वादी हैं और हिन्दू भी सजग और जाग्रत हुआ है | इस विषय को शुरू से प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं |
अयोध्या हिन्दुओं की एतिहासिक, पौराणिक और सांस्कृतिक पवित्रतम और पूज्य मोक्षदायी सप्त पुरियों में से एक नगरी है |  दरअसल अयोध्या का एक नाम अ योध्या भी है | अ योध्या माने जहाँ कोई युद्ध न हुआ हो | और दूसरा अवध माने अ वध जहाँ कोई वध (हत्या) न हुआ हो | लम्बे काल खंड माने सतयुग, त्रेता और द्वापर तक ये तथ्य सत्य भी बना रहा | पर १५२८ ई. में एक उजबेक आक्रान्ता बाबर और उसके सेनापति मीर बाकि ने अयोध्या पर सम्राट विक्रमादित्य द्वारा बनाए भव्य राम मंदिर को तोड़कर हिन्दुओं को गहरा घाव दिया | तब ही  १.७४ लाख हिन्दुओं के बलिदान के उपरांत ही आक्रान्ता मंदिर तक पहुँच सके थे | तब से निरंतर संघर्ष जारी है | लेकिन अब समय बदला है क्योंकि केंद्र और उत्तर प्रदेश में अब स्पष्ट बहुमत की भाजपा की हार्ड कोर हिंदुत्ववादी सरकारें है | अब और हिन्दुओं की सहन शक्ति की परीक्षा नहीं ली जा सकती है |
    ६ दिसंबर १९९२ ई. को विवादित ढांचा ढहाए हुए २५ वर्ष बीत गए है माने एक नई पीढ़ी आ गई जिसे राममंदिर के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है | दरअसल बाबरी ढांचा किसी भी भारतीय का आस्था केंद्र नहीं हो सकता | मुसलमान और सेकुलर इस पर सिर्फ राजनीती करते रहे | राम भारत की आस्था और आत्मा है | इस पर अब तक ७७ युद्धों में ३.५ लाख हिन्दू बलिदान दे चुके है | अब विश्व का १०० करोड़ हिन्दू वहां शीघ्र भव्य राम मंदिर देखना चाहता है | बाबर उज्बेकिस्तान में पैदा हुआ और अफगान (काबुल) में १५३० ई. में मरा | हिन्दुओं को चिढाने के लिए ये बाबर से नाता जोड़ते है | वरना काबुल में जर्जर मजार को क्यों नहीं दुरुस्त कर लेते बाबरी के पक्षधर | जन्म भूमि पर १८५३ ई. में पहला हिन्दू मुस्लिम विवाद हुआ था | तब कोर्ट ने दोनों पक्षों को दो अलग स्थान दे दिए थे | १९४९ ई. २२ दिसंबर में मध्य गुम्बद में अचानक रामलला मध्य रात्रि को प्रकट हो विराजमान हो गए | तब से वहां निरंतर पूजा अर्चना चल रही है | इस स्थान पर ५० मीटर तक मुस्लिम का प्रवेश निषेध हुआ | परन्तु तनाव बढ़ने से मंदिर को १९५० ई. में ताला लगा दिया गया | १९८६ ई. में कोर्ट के आदेश से ही फिर ताला खुला भी | वैसे १९८४ ई. में १० लाख के खर्चे का अन्यत्र उठा कर ले जाने का भी प्रस्ताव आया था | राजीव गाँधी, वी. पी. सिंह और चन्द्र शेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में वार्ता के प्रयास हुए जिनमे चंद्रशेखर का प्रयास सबसे सार्थक था पर उनकी सरकार शीघ्र गिर गई | एक वर्ष वार्ता चली परन्तु अपने को असफल पाकर इस वार्ता में मुसलमानों ने आना बंद कर दिया | अंत में कहा की यदि ये सिद्ध हो जाता है की वहां कोई मंदिर था तो हम स्वेच्छा से अपना दावा छोड़ देंगे | सितम्बर १९९४ ई. में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने भी कोर्ट को शपथपत्र देकर कहा की मंदिर सिद्ध होने पर हम हिन्दू भावनाओं की कद्र करेंगे | पर कोर्ट को तो सबूत और गवाह चाहियें थे तब साइंस की तकनिकी का सहारा ले खुदाई का निर्णय हुआ | २००३ ई. में ASI ने ६ महीने खुदाई कराई | ६० – ४० के अनुपात में हिन्दू मुस्लिम मजदुर और दोनों पक्षों के प्रतिनिधि तथा हिन्दू मुस्लिम दो न्यायाधीशों की देख - रेख में खुदाई चली | १६ फुट चौड़ी २७ दीवारें निकली | इसके आलावा २ पंक्तियों में ५२ रचनाएँ और मिली है | बराबर दुरी पर खम्बे मिलें हैं | इशान कोण में सीढ़ी सहित तालाब मिला है, ४ स्तरों पर पक्के चमकदार फर्श मिले है | खुदाई ४० फुट गहरे तक की गई | खुदाई से स्पष्ट होता है की वहां एक उत्तर भारतीय शैली का विशाल मंदिर था | गुलामी के चिहों को संजोंकर रखना अपमानजनक है जो हटाये जाते रहे है हटाये जाने चाहियें | १९६२ में गोआ सैन्य कार्यवाही से लिया | इस सन्दर्भ में हिन्दू ३ बातों के लिए भी कटिबद्ध है – (१) - विहिप द्वारा हिन्दू समाज से एकत्र धनराशि और उन्ही एकत्रित शिलाओं से ही मंदिर बने | (२) - अयोध्या की संस्कृतिक परिधि में कोई मस्जिद नहीं बने | (३) – आक्रान्ता लुटेरे बाबर के नाम पर भारत में कहीं भी मस्जिद नहीं बने |



                                    “नेहरू वंश बनाम मुग़ल खानदान”
      स्वातंत्रोत्तर भारत में दिल्ली की सत्ता पर अधिकांश नेहरू खानदान का ही राज रहा है | इस वंश या खानदान को काफी लोग मुग़ल खानदान से जोड़कर देखते है | ऐसा कहने का उनके पास अपना तर्क भी है, और वे लोग तर्क का आधार है बताते है नेहरू के सेक्रेटरी एम ओ मथाई की पुस्तक रेमेनिसेंसेस ऑफ़ नेहरू एज (जो  भारत में प्रतिबंधित है) तथा के एन राव की पुस्तक “द नेहरू डायनेस्टी” | ये पुस्तके नेहरू के करीबियों ने लिखी है,  और इन में नेहरू परिवार के बारे में विस्तार से लिखा गया है | जो भी है पर हमारे पास नेहरू वंश को मुग़ल खानदान से जुडा मानने के अलग तर्क है |
(१)- मुग़ल खानदान को भारत के इतिहास में इतना महत्वपूर्ण और विस्तृत रूप से क्यों पढाया जाता है ? मुग़ल कक्षा 6 से शुरू होकर बीए, एमए और फिर पीसीएस आईएएस की सर्वोच्च परीक्षाओ तक छात्रो और अभ्यर्थियों का पीछा नहीं छोड़ते है | यदि हम ज्यादा पीछे भी न जाएँ तो भी महाराजा परिक्षत से लेकर सम्राट पृथवीराज चौहान तक पढ़ने योग्य हमारा गौरवशाली इतिहास नहीं रहा क्या ? इस कालखंड में हम सोने की चिड़िया, जगतगुरु और परम वैभव शाली नहीं रहे क्या ? पर पाठ्यक्रमो से सब गायब है | 
(२)- 8 नवम्बर 2010 में भारत दौरे पर आये अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को क्या हुमायूँ का मकबरा ही मिला था दिखाने के लिए ? दिल्ली में तो पुराना किला जैसी एक से एक हजारो वर्ष पुरानी एतिहासिक और दर्शनीय इमारते है |
(३)- अफगानिस्तान स्थित बाबर की जर्जर मजार पर बार- बार नेहरू खानदान के लोग क्यों जाते है ? अफगानियों के लिए वो महत्वहीन है | वे अपने को मुग़ल वंश से अलग करके देखते हैं | 2004 में राहुल और प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह गए | इंदिरा गाँधी भी सन 1968 ई. में अपने आई ऍफ़ एस अधिकारी नटवर सिंह (बाद में केन्द्रीय मंत्री) के साथ अपने कार्यकाल में जिद करके वहां गई | ये लोग प्रोटोकोल तोड़ कर गए, अफगान सरकार के मना करने पर गए, वह क्षेत्र तालिबानी आतंकवाद ग्रसित है तब भी ये लोग गए क्यों ? तब वहां पहुंचकर इंदिरा गाँधी ने कहा था की “आज मैंने अपने को अपने इतिहास से जोड़कर अपना इतिहास ताजा कर लिया |”
(४)– विश्व संस्था यूनेस्को ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है की “भारत में एक से बढ़ कर एक गैर मुगलकालीन बेहतरीन ऐतिहासिक स्मारक स्थित हैं | पर न जाने क्यों यहाँ की सरकार मुगलकालीन स्मारकों की ही सिफारिश विश्व धरोहर की सूचि के लिए करती हैं ? यहाँ की सरकारों को अपना नजरिया बदलना चाहिए | और गैर मुग़ल स्मारकों को भी सूचि के लिए भेजना चाहिए | फ़िलहाल भारत की २७ स्मारक विश्व धरोहर सूचि में शामिल है लालकिला इनमे सबसे अंत में शामिल हुआ |” ये विचार एक कार्यक्रम के दौरे पर 2009 ई. में भारत आयी यूनेस्को की संस्कृति कार्यक्रम विशेषज्ञ मोइचिबा ने कहे | अब प्रश्न ये उठता है की मुग़ल स्मारकों से ही इतना मोह क्यों ? वो भी ये विश्व संस्था कह रही है |

आखिर नेहरू व नेहरू के वंशजों का मुग़ल खानदान से इतना प्रेम क्यों है ? मुगलों का इतिहास पढाया जाना, नेहरू के वंशजों का बार बार बाबर की जर्जर मजार पर जाना, मुग़ल स्मारकों से बेहद लगाव का आखिर क्या कारण है ? ये सब तथ्य नेहरू वंश को मुग़ल वंश से जोड़कर देखने को मजबूर करते हैं || 

Tuesday 26 September 2017

                  “तात्या टोपे”

तात्या टोपे का नाम भारत के १८५७ ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में सम्मान से लिया जाता है | वे इस संग्राम में न केवल सेनानायक व रणनीतिकार थे बल्कि उनकी भूमिका महत्वपूर्ण प्रेरणादायी और बेजोड़ थी | उनका जन्म १८१४ ई. में महाराष्ट्र के नासिक के समीप पटोदा जिले के येवला नामक ग्राम में ‘पांडुरंग राव भट्ट’ के घर ८ संतानो में सबसे बड़े पुत्र के रूप में हुआ था |  इनके पिता बाजीराव पेशवा द्वितीय के यहाँ घरेलू नोकर थे | इनका वास्तविक नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग राव’ था | वे बाजीराव के करीब आ गए और उनके विस्वसनीय  बन गए | तथा उनके साथ बिठुर आ गए और यही लक्ष्मीबाई और नाना साहेब के साथ शिक्षा पाई | तभी निर्धारित समय से पूर्व १० मई को क्रांति की ज्वाला भड़क उठी | तब ये सभी लोग कानपूर में थे | १८५७ की क्रांति के इतिहास की रक्त रंजित गौरव गाथा सेनानियों ने अपने खून से लिखी | जब नाना साहेब, लक्ष्मी बाई आदि बड़े चहरे अंग्रेजों की तलवार की भेंट चढ़ गए तो तात्या टोपे अपने को बचाते और अंग्रेजों को छकाते अंतिम सांस तक लम्बी लडाई लडते रहे | क्रांतिकारियों ने ४ जून १८५७ को कानपुर ७ जून को झाँसी १४ जून को ग्वालियर पर कब्ज़ा कर लिया | अंग्रेज संभले और इलाहबाद से सेना बुला १७ जोलाई को पुन: कानपूर पर कब्ज़ा कर लिया | कानपूर का पतन होने पर गुप्त मार्ग से निकल तात्या ग्वालियर पहुंचे और वहां से सेना लेकर कालपी पहुंचे | यहाँ से जनरल विन्डहम को कानपूर के पास घेर लिया | तथा दो दिन की कड़ी मशक्कत के बाद कानपूर पर पुन: कब्ज़ा कर लिया | लखनऊ में क्रांतिकारियों को हराता हुआ केम्बेल अपनी सेना ले विन्ढम की मदद को चल पड़ा | तात्या ने अयोध्या में गंगा का पुल उडा केम्बेल का गंगा पर करना रोक दिया | फिर भी केम्बेल तोपों की मार करता हुआ २० नवम्बर को कानपूर आ पहुंचा | तथा १ व २ दिसंबर को तात्या की सेना पर हमला बोल दिया | अंग्रेजों की घेरेबंदी तोड़ तात्या को पीछे हटना पडा और कालपी पहुँच गए | यहाँ से २२ हजार की सेना ले लक्ष्मीबाई की सहायता को झाँसी के लिए बेतवा नदी के पास पहुंचे पर यहां पर भी  अंग्रेजों से सामना हो गया | अप्रेल १९५८ के इस युद्ध में भी तात्य को पीछे हटाना पडा | ग्वालियर पहुंचे तथा सेना एकत्र की | मई के अंत में गोपालपुर जाकर राव साहेब, रानी लक्ष्मी  बाई, नवाब बांदा आदि को ग्वालियर पर चढ़ा लाये कालपी के पतन के बाद ये लोग यहाँ एकत्र थे | सिंधिया की पूरी सेना इन के साथ आ गई पर राजा सिंधिया को भागकर आगरा शरण लेनी पड़ी | ग्वालियर के किले पर क्रांतिकारी विजय जश्न मना ही रहे थे की अंग्रेज सेना ने सिंधिया को साथ लेकर ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी | क्रांतिकारीयों को पराजय हाथ लगी | रानी लक्ष्मीबाई युद्ध में खेत रही | तात्या वहां से बची सेना और राव साहब के साथ मथुरा पहुंचने में सफल हुए | बार बार की पराजय के कारणों और परिस्थितियों पर विचार कर तात्या ने रणनीति बदलने का निश्चय किया | जिसमे अंग्रेजों से आमने सामने के युद्ध के बजाय गुरिल्ला युद्ध करने की नीति बनी | अंग्रेजों पर अंतिम और निर्णायक प्रहार के लिए तात्या स्वतंत्रता सेनानियों को संगठित कर नर्मदा पार कर दक्षिणा दिशा में जाना चाहते थे | जबकि अंग्रेज सेना उन्हें नर्मदा से पहले ही दबोचने की फ़िराक में थी | तात्या ने जयपुर जाते जाते टोंक पर चढ़ाई कर दी | जहाँ से उन्हें टोंक की सेना मिल गई | अंग्रेजी सेना दो तरफ से इनकी सेना का पीछा कर रही थी | वह इंद्रगढ (कोटा), बूंदी, नीमच, नसीराबाद, होते हुए ७ अगस्त १९५८ को भीलवाडा पहुंचे | यहाँ अंग्रेजी सेना से फिर उनका मुकाबला हुआ | पर तात्या उसे चकमा देकर नाथद्वारा जा पहुंचे | यहाँ फिर १४ अगस्त को अंग्रेज सेना ने इन्हें आ घेरा | इस युद्ध में भी इन्हें अपार क्षति उठानी पड़ी पर हार नहीं मानी | इस समय अंग्रेज सेना इनका तीन ओर से पीछा कर रही थी | पर तात्या तीनों की आँख में धूल झोंक कर चम्बल पार करने में सफल रहे | और अब ये झालरपाटन पहुंचे तो अंग्रेजों के पिट्ठू राजा ने इनपर हमला कर दिया | पर उसकी सारी सेना तात्या से मिल गई | तब उस राजा को ३२ तोपें, रसद, १५ लाख रुपये और अन्य युद्ध सामग्री  देकर तात्या से संधि करनी पड़ी | तात्या की ५ दिन यहाँ रुक कर दक्षिण दिशा में आगे बढ़ने की योजना थी | तात्या टोपे की विशेषता और प्रतिभा थी कि एक दिन उनके पास सेना और  रसद शून्य हो जाती थी और अगले दिन उनके नाम के जादू से राजाओं रजवाड़ों की सेना अपने पूरे साजों सामन के साथ उनके नत मस्तक किये खड़ी मिलती थी | इनकी गिरफ़्तारी के मनसूबे बांधे इनके पीछे पड़ी अंग्रेज सेना हाथ मालती रह जाती थी | झालारपाटन से तात्या रामगढ़ पहुंचे और महू इंदौर होते हुए ईसागढ़ (ग्वालियर रियासत) पहुंचे | इन दस महीनो में अंग्रेजों की ५ सेनाएं हाथ धोकर उनके पीछे पड़ी रही और हारती रही | ईसागढ़ में तात्या ने अपनी सेना दो भागों में बाँट दी | एक की कमान राव साहब पेशवा दूसरी की कमान स्वयम तात्या ने संभाली | दोनों अलग अलग मार्ग से होते हुए ललितपुर पहुंचकर पुन: मिले | यहाँ से पहाड़ जंगल नदी घाटियों के रास्ते चलकर आखिर तात्या सेना सहित नर्मदा पार करने में सफल हो गए | होसंगाबाद से तात्या के नागपुर पहुँचने पर न केवल भारत स्थित अंग्रेज सेनानायक आश्चर्य चकित हुए वरन इंग्लैण्ड और योरोप में भी तात्या के सैन्य चातुर्य की भूरी भूरी प्रशंसा हुई | इधर तात्या अपना पीछा करने वाली अंग्रेजी सेनाओं की रोकथाम के लिए उनकी डाक लूटने, तारों की लाइन काटने और उनकी चोकियों को नष्ट करने की व्यवस्था करते हुए नर्मदा के उद्गम स्थल तक पहुँच गए |  करजन गाँव के पास अंग्रेज सेना से घिर जाने पर वे नर्मदा नदी में कूद पड़े और तैरकर नदी पारकर बांसवाडा पहुंह गए | यहाँ शहजादा फिरोजशाह भी अपनी सेना के साथ इनसे आ मिला | ग्वालियर का एक दरबारी पाडोन का राजा मानसिंह भी इनके साथ हो लिया | ये सब १३ जनवरी १८५९ को इंद्रगढ़ पहुंचे १६ जनवरी को अंग्रेज सेना ने इन्हें चारों ओर से घेर लिया | तात्या पकड़ में नहीं आये और २१ जनवरी को अलवर के पास सिखार में पुन: प्रकट हुए | तात्या कुछ दिन विश्राम करने और अंग्रेजों से लोहा लेने की आगे की योजना और रणनीति बनाने की मंशा से सेना छोड़ मित्र मानसिंह के यहाँ पाड़ोंन पहुंचे | परन्तु नियति ने कुछ और ही सोच रखा था इस मित्रघाती गद्दार मानसिंह ने अंग्रेजों से घूस लेकर ७ अप्रेल १८५९ में तात्या को गिरफ्तार करा दिया | और अंग्रेजों ने न्याय का नाटक करके १८ अप्रेल १८५९ को भारत माता के वीर सपूत और क्रांति के महा नायक तात्या टोपे को फांसी पर लटका दिया ||    

Friday 4 August 2017

                 “मेरी संस्कृत महान”
संस्कृत विश्व की महानतम और श्रेष्ठ वैज्ञानिक भाषा है | मुझे गर्व है मै संस्कृत के देश में पैदा हुआ और मैंने संस्कृत पढ़ी | पर आज के सेकुलर वादियों ने संस्कृत को मृत भाषा बना छोड़ा है | जबकि आज के वैज्ञानिक सुपर कम्पूटर के निर्माण हेतु संस्कृत को ही सर्वथा उपपुक्त पाते है | आज के पाश्चात्य प्रेमी संस्कृतद्रोही संस्कृत को वैश्विक भाषा ही नहीं मानते | भारत की भाषा भी नहीं मानते | ये लोग अपने तर्क में कहते है की संस्कृत एक प्रबुद्ध वर्ग की भाषा रही है कभी जनभाषा या आम भाषा नहीं रही | ब्राहमणों और सवर्णों तक सीमित रही | जब कोई संस्कृत की अवहेलना करता है तब लगता है की मानो वह अपनी माँ की अवहेलना कर रहा है |
   लेकिन संस्कृत जनभाषा थी आम से आम नागरिक संस्कृत में ही बातें करता था | यहाँ तक के बाणभट्ट रचित कादंबरी में एक नागरिक जो शुद्र था के पास संस्कृत बोलने वाले तोते का भी वर्णन है | उसके पास एक अनिन्ध सुन्दर कन्या भी थी | अपने मित्रों के कहने पर वह व्यक्ति अपनी बेटी और वह तोता अपने राजा को भेंट करता है | क्योकि मित्रों ने कहा था कि अमूल्य वस्तुए राजा के पास ही शोभा देती है | इसी सन्दर्भ में एक घटना की चर्चा करते है जिससे पता चलता है की संस्कृत व्यापक जनभाषा थी और राजा से लेकर रंक तक सब की भाषा थी |           घटना राजा भोज के काल की है |

     एक बार राजा भोज घूमते हुए नगर के बाहर की और आते हैं तो क्या देखते हैं कि एक लकडहारा भारी लकड़ी का गट्ठर सर पर रखे पसीने पसीने होता हुआ अपने घर की और बढा चला जा रहा है | राजा को तनिक कष्ट हुआ और लकड़हारे से पूछ बैठे कि लकडहारे --- किम ते भारं बाधति || उत्तर में लकडहारा कहता है जो बहुत महत्वपूर्ण है – भारं न बाधते राजन यथा बाधति बाधते || राजा लकडहारे से कहता है कि ‘क्या ये भार आपको कष्ट पहुंचा रहा है’ | इस पर लकडहारा राजा को उत्तर देता है वह बात ध्यान देने योग्य है ‘राजन ये भार मुझे कष्ट नहीं दे रहा पर आपके द्वारा बाधते के स्थान पर बाधति शब्द का अशुद्ध उच्चारण मुझे कष्ट पंहुचा रहा है’ | एक लकडहारा और संस्कृत के व्याकरण की इतनी व्यापक पकड़ | और ये लोग कहते है की संस्कृत कभी जनभाषा नहीं रही | दरअसल संस्कृत में धातुएं परस्मैपदि और आत्मनेपदि के 2 रूपों में चलती है | परस्मैपदि बाधति बाधते बाधंती के रूप में चलती है | और आत्मनेपदि में बाध धातु बाधते बाधेते बाधन्ते के रूप में चलती है और बाध धातु आत्मनेपदि है | बाध धातु में आत्मनेपदि का प्रयोग होना चाहिए था | जबकि राजा ने परस्मेपदि का प्रयोग किया था | ऐसी महान मेरी संस्कृत भाषा है | जब एक लकडहारा भी भाषा की अशुद्धता पर राजा को भी टोक देता है | 
 

Tuesday 31 January 2017

                   “जंगल का कानून”

जब जब बिगड़ी हुई कानून व्यवस्था और निरंकुश अपराध से जनता त्रस्त हो जाती है तथा सत्ता जनता की सुनने के बजाय अपराधियों का ही संरक्षण करने लगती है | चारों तरफ अराजकता की स्थिति हो जाय अपराधी और सत्ता में सांठ गाँठ हो जाय | सामान्य मानवी का जीना दूभर हो जाय | तब अनायास ही मुख से निकल पड़ता है की जंगल राज आ गया | ‘जंगल का कानून’ है | कोई सुनने वाला नहीं है | लेकिन ‘जंगल का कानून’ क्या भारत के धार्मिक, संस्कृतिक, आध्यात्मिक, परिपेक्ष्य में उचित है | क्योंकि भारत का तो सारा वांग्मय, सारा ज्ञान सारे दर्शन, स्मृति, वेद, उपनिषद, आरण्यक, ब्राह्मण और ब्रहम सूत्र आदि जंगल में ही लिखे गए | अदालत में शपथ ली जाने वाली पुस्तक ‘गीता’ कुरुक्षेत्र के जंगल में ही कही गई और लिखी गई | अधुनिक वेद कही जाने वाली रामायण भी महर्षि बाल्मीकि ने दंडकारण्य में लिखी थी | ‘कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास’ ने ‘महाभारत’ खांडववन में लिखा | वो बात अलग है की खांडव
वन एक दिन इंदप्रस्थ बन युधिष्ठिर कि राजधानी बना | वनों की इसी श्रंखला में नैमिषारण्य में सूतजी के नेतृत्व में शौनक आदि सहस्त्रों ऋषि मुनियों ने एक लम्बा एतिहासिक संवाद किया था | मजे की बात तो ये है की पाश्चात्य दर्शन ने जंगल को असभ्यता की निशानी माना और ‘जंगल का कानून’ बर्बरता का पर्याय माना गया | उसके उलट भारतीय दर्शन में सारा ज्ञान सारा दर्शन यहाँ तक के सभ्यता और संस्कृति का प्रस्फुटन ही जंगल में हुआ घाटी और गिरी कंदराओं  में हुआ | पुरातन कानून माने स्मृति ग्रन्थों का प्रबोधन भी जंगल में हुआ | भारत में तो वन, अरण्य, तपोवन, गुरुकुल, विद्याकुल, ऋषिकुल और आश्रमों में सभ्यता और समाज के गूढ़तर रहस्य सब जंगलों में ही सुलझाये गए और रचे गए | राजा जनक के समकालीन याज्यवल्क्य अपनी दोनों पत्नी कात्यायनी और मैत्रेयी के साथ अपने आश्रम में रहते थे | राजा जनक ने सींगो पर स्वर्ण जडित एक हजार गाय इन्ही ऋषि को दान में दी थी | मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने १४ वर्ष वन में ही जीकर निसाचरी संस्कृति का समूल नाश कर अधर्म पर फतह का मार्ग प्रशस्त किया | धर्मराज युधिष्ठिर ने भी भाईयों के साथ १२ वर्ष वनवास व १ वर्ष अज्ञातवास जंगल में जीकर हस्तिनापुर से अधर्म राज को समूल नाश किया | एक उपनिषदीय कथा में धौम्य ऋषि के शिष्य आरुणि ने खेतों से बह रहे पानी को न रोक पाकर भारी ठण्ड में स्वयं लेटकर बहते पानी को रोका था | वनवास काल में अत्री ऋषि की पत्नी अनसुइया ने माता सीता को उपहार स्वरूप सोने के गहने दिये थे | हस्तिनापुर नरेश महाराजा दुष्यंत का ऋषि कन्या शकुंतला से प्रेम प्रसंग जंगल मे ही हुआ और चक्रवर्ती सम्राट महाराजा भरत का जन्म हुआ और वंश आगे बढा | पांडू की मृत्यु के बाद माता सत्यवती ने अपनी बहुओं अम्बिका और अम्बालिका के साथ जीवन के अंतिम सोपान पर वन को जाना ही श्रेयस्कर समझा | और महाभारत के बाद गांधारी धृतराष्ट्र के साथ माता कुंती ने जो अब राजमाता थी पर राजमहल छोड़ गांधारी के साथ स्वेच्छा से ही वन्य जीवन स्वीकार किया | तर्कशास्त्र कि एक शाखा अरण्य में लिखे जाने के कारण ‘आरण्यक’ कहलाई | जंगली जीवन (आश्रमीय जीवन) शांत और सादगी पूर्ण था | जबकि शहरी जीवन शोर, व्यस्त, तनाव और आप धापी के साथ विलासितापूर्ण होता है | तपोवनो में जंगल होने के कारण भी सम्पूर्ण आत्मनिर्भर पारिवारिक व्यवस्था होती थी | ये जंगली पारिवारिक जीवन तमाम मानवीय मूल्यों के उच्च आदर्शों को प्रस्तुत करते हुए अनुकरणीय होते थे | इसी कारण आश्रम सन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों, योगियों, व्यापारिक और धार्मिक यात्रियों को अपनी और आकर्षित कर उनके शरणस्थली बनते थे | जैसे जैसे भारतीय जन मानस आश्रम संस्कृति से हटता गया | भारत का वैभव भी क्षीण होता गया | इसी लिए जीवन का एक कालखंड वानप्रस्थ रहकर जंगल में गुजारने की परंपरा पड़ी | कभी समाज को सुधारने के सुखमय और समृद्ध बनाने के कानून जंगल में बनते थे | अब जंगलों को स्वस्थ्य, समृद्ध और संरक्षण के कानून समाज में बनते है | अब जरा चिंता करें की भारत मे तो जंगल के कानून के आलावा कुछ बचता ही नहीं है | अत: ध्यान रहे हमारे ‘जंगल के कानून’ अति सम्मान योग्य है ||