“तात्या टोपे”
तात्या टोपे का नाम
भारत के १८५७ ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में सम्मान से लिया जाता
है | वे इस संग्राम में न केवल सेनानायक व रणनीतिकार थे बल्कि उनकी भूमिका
महत्वपूर्ण प्रेरणादायी और बेजोड़ थी | उनका जन्म १८१४ ई. में महाराष्ट्र के नासिक
के समीप पटोदा जिले के येवला नामक ग्राम में ‘पांडुरंग राव भट्ट’ के घर ८
संतानो में सबसे बड़े पुत्र के रूप में हुआ था | इनके पिता बाजीराव पेशवा द्वितीय के यहाँ घरेलू
नोकर थे | इनका वास्तविक नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग राव’ था | वे बाजीराव के
करीब आ गए और उनके विस्वसनीय बन गए | तथा
उनके साथ बिठुर आ गए और यही लक्ष्मीबाई और नाना साहेब के साथ शिक्षा पाई | तभी निर्धारित
समय से पूर्व १० मई को क्रांति की ज्वाला भड़क उठी | तब ये सभी लोग कानपूर में थे |
१८५७ की क्रांति के इतिहास की रक्त रंजित गौरव गाथा सेनानियों ने अपने खून से लिखी
| जब नाना साहेब, लक्ष्मी बाई आदि बड़े चहरे अंग्रेजों की तलवार की भेंट चढ़ गए
तो तात्या टोपे अपने को बचाते और अंग्रेजों को छकाते अंतिम सांस तक लम्बी लडाई लडते
रहे | क्रांतिकारियों ने ४ जून १८५७ को कानपुर ७ जून को झाँसी १४ जून को ग्वालियर
पर कब्ज़ा कर लिया | अंग्रेज संभले और इलाहबाद से सेना बुला १७ जोलाई को पुन:
कानपूर पर कब्ज़ा कर लिया | कानपूर का पतन होने पर गुप्त मार्ग से निकल तात्या
ग्वालियर पहुंचे और वहां से सेना लेकर कालपी पहुंचे | यहाँ से जनरल विन्डहम को
कानपूर के पास घेर लिया | तथा दो दिन की कड़ी मशक्कत के बाद कानपूर पर पुन: कब्ज़ा
कर लिया | लखनऊ में क्रांतिकारियों को हराता हुआ केम्बेल अपनी सेना ले विन्ढम की
मदद को चल पड़ा | तात्या ने अयोध्या में गंगा का पुल उडा केम्बेल का गंगा पर करना
रोक दिया | फिर भी केम्बेल तोपों की मार करता हुआ २० नवम्बर को कानपूर आ पहुंचा |
तथा १ व २ दिसंबर को तात्या की सेना पर हमला बोल दिया | अंग्रेजों की घेरेबंदी तोड़
तात्या को पीछे हटना पडा और कालपी पहुँच गए | यहाँ से २२ हजार की सेना ले लक्ष्मीबाई
की सहायता को झाँसी के लिए बेतवा नदी के पास पहुंचे पर यहां पर भी अंग्रेजों से सामना हो गया | अप्रेल १९५८ के इस
युद्ध में भी तात्य को पीछे हटाना पडा | ग्वालियर पहुंचे तथा सेना एकत्र की | मई
के अंत में गोपालपुर जाकर राव साहेब, रानी लक्ष्मी बाई, नवाब बांदा आदि को ग्वालियर पर चढ़ा लाये
कालपी के पतन के बाद ये लोग यहाँ एकत्र थे | सिंधिया की पूरी सेना इन के साथ आ गई
पर राजा सिंधिया को भागकर आगरा शरण लेनी पड़ी | ग्वालियर के किले पर क्रांतिकारी
विजय जश्न मना ही रहे थे की अंग्रेज सेना ने सिंधिया को साथ लेकर ग्वालियर पर चढ़ाई
कर दी | क्रांतिकारीयों को पराजय हाथ लगी | रानी लक्ष्मीबाई युद्ध में खेत रही |
तात्या वहां से बची सेना और राव साहब के साथ मथुरा पहुंचने में सफल हुए | बार बार
की पराजय के कारणों और परिस्थितियों पर विचार कर तात्या ने रणनीति बदलने का निश्चय
किया | जिसमे अंग्रेजों से आमने सामने के युद्ध के बजाय गुरिल्ला युद्ध करने की
नीति बनी | अंग्रेजों पर अंतिम और निर्णायक प्रहार के लिए तात्या स्वतंत्रता
सेनानियों को संगठित कर नर्मदा पार कर दक्षिणा दिशा में जाना चाहते थे | जबकि
अंग्रेज सेना उन्हें नर्मदा से पहले ही दबोचने की फ़िराक में थी | तात्या ने जयपुर
जाते जाते टोंक पर चढ़ाई कर दी | जहाँ से उन्हें टोंक की सेना मिल गई | अंग्रेजी
सेना दो तरफ से इनकी सेना का पीछा कर रही थी | वह इंद्रगढ (कोटा), बूंदी, नीमच,
नसीराबाद, होते हुए ७ अगस्त १९५८ को भीलवाडा पहुंचे | यहाँ अंग्रेजी सेना से फिर उनका
मुकाबला हुआ | पर तात्या उसे चकमा देकर नाथद्वारा जा पहुंचे | यहाँ फिर १४ अगस्त
को अंग्रेज सेना ने इन्हें आ घेरा | इस युद्ध में भी इन्हें अपार क्षति उठानी पड़ी
पर हार नहीं मानी | इस समय अंग्रेज सेना इनका तीन ओर से पीछा कर रही थी | पर
तात्या तीनों की आँख में धूल झोंक कर चम्बल पार करने में सफल रहे | और अब ये
झालरपाटन पहुंचे तो अंग्रेजों के पिट्ठू राजा ने इनपर हमला कर दिया | पर उसकी सारी
सेना तात्या से मिल गई | तब उस राजा को ३२ तोपें, रसद, १५ लाख रुपये और अन्य युद्ध
सामग्री देकर तात्या से संधि करनी पड़ी |
तात्या की ५ दिन यहाँ रुक कर दक्षिण दिशा में आगे बढ़ने की योजना थी | तात्या टोपे
की विशेषता और प्रतिभा थी कि एक दिन उनके पास सेना और रसद शून्य हो जाती थी और अगले दिन उनके नाम के
जादू से राजाओं रजवाड़ों की सेना अपने पूरे साजों सामन के साथ उनके नत मस्तक किये खड़ी
मिलती थी | इनकी गिरफ़्तारी के मनसूबे बांधे इनके पीछे पड़ी अंग्रेज सेना हाथ मालती
रह जाती थी | झालारपाटन से तात्या रामगढ़ पहुंचे और महू इंदौर होते हुए ईसागढ़
(ग्वालियर रियासत) पहुंचे | इन दस महीनो में अंग्रेजों की ५ सेनाएं हाथ धोकर उनके
पीछे पड़ी रही और हारती रही | ईसागढ़ में तात्या ने अपनी सेना दो भागों में बाँट दी
| एक की कमान राव साहब पेशवा दूसरी की कमान स्वयम तात्या ने संभाली | दोनों अलग
अलग मार्ग से होते हुए ललितपुर पहुंचकर पुन: मिले | यहाँ से पहाड़ जंगल नदी घाटियों
के रास्ते चलकर आखिर तात्या सेना सहित नर्मदा पार करने में सफल हो गए | होसंगाबाद
से तात्या के नागपुर पहुँचने पर न केवल भारत स्थित अंग्रेज सेनानायक आश्चर्य चकित
हुए वरन इंग्लैण्ड और योरोप में भी तात्या के सैन्य चातुर्य की भूरी भूरी प्रशंसा हुई
| इधर तात्या अपना पीछा करने वाली अंग्रेजी सेनाओं की रोकथाम के लिए उनकी डाक
लूटने, तारों की लाइन काटने और उनकी चोकियों को नष्ट करने की व्यवस्था करते हुए
नर्मदा के उद्गम स्थल तक पहुँच गए | करजन
गाँव के पास अंग्रेज सेना से घिर जाने पर वे नर्मदा नदी में कूद पड़े और तैरकर नदी
पारकर बांसवाडा पहुंह गए | यहाँ शहजादा फिरोजशाह भी अपनी सेना के साथ इनसे आ मिला
| ग्वालियर का एक दरबारी पाडोन का राजा मानसिंह भी इनके साथ हो लिया | ये सब १३
जनवरी १८५९ को इंद्रगढ़ पहुंचे १६ जनवरी को अंग्रेज सेना ने इन्हें चारों ओर से घेर
लिया | तात्या पकड़ में नहीं आये और २१ जनवरी को अलवर के पास सिखार में पुन: प्रकट
हुए | तात्या कुछ दिन विश्राम करने और अंग्रेजों से लोहा लेने की आगे की योजना और
रणनीति बनाने की मंशा से सेना छोड़ मित्र मानसिंह के यहाँ पाड़ोंन पहुंचे | परन्तु
नियति ने कुछ और ही सोच रखा था इस मित्रघाती गद्दार मानसिंह ने अंग्रेजों से घूस
लेकर ७ अप्रेल १८५९ में तात्या को गिरफ्तार करा दिया | और अंग्रेजों ने न्याय का
नाटक करके १८ अप्रेल १८५९ को भारत माता के वीर सपूत और क्रांति के महा नायक तात्या
टोपे को फांसी पर लटका दिया ||