“एकलव्य का अंगूठा
और दलित चिन्तक”
भारत में अपने शासन को स्थायित्व और प्रमाणिकता
प्रदान करने के लिए अंग्रेजों ने शक्ति के साथ बुद्धि का भी भरपूर प्रयोग किया |
इसी अवधारणा को बल प्रदान करने के लिए उन्होंने आर्यों का भारत में बहार से आना
बताया | और धीरे धीरे समाज में, शिक्षा में, संस्कृति में, पुरातन
सांस्क्रतिक वांग्मय में अपने स्वार्थ को सिद्ध और स्थापित करने वाली बाते स्थापित
करनी शुरू कर दी | क्योकि भारतीय जनमानस सहज स्वीकार कर ले तो हमारे पुरातन ग्रंथो
को तोड़ मरोड़ कर नई नई बाते उनमे डालनी शुरू कर दी | इससे उन्हें हिन्दू समाज में
भेद पैदा करने का अवसर भी मिल गया | और हिन्दू समाज में ही उन्होंने अपने अनुगामी भी
पैदा कर लिए | क्योकि अंग्रेजी कालखंड आते - आते संस्कृत के जानकर उँगलियों पर ही
रह गए थे अत: संस्कृत ग्रंथो का अपने अनुसार अनुवाद कराने में उन्हें कोई परेशानी
नहीं हुई | दलितों के बारे में वैसे तो उस समय व्यवहार में काफी विसंगतिय फैली थी
सवर्ण - अवर्ण में गतिरोध था | ये विसंगति परिस्थिति के कारण थी पर अंग्रेजो ने
इसे शास्त्र सम्मत सिद्ध करने का भरपूर प्रयास किया और उसका लाभ उठाया | उन बातो
में दलित चिन्तक भी उलझ गए और आज दलित राजनीति करने वाले भी उसी राह पर चल पड़े है
| इसी के चलते ये लोग सवर्णवाद, ब्राह्मणवाद और मनुस्मृति को जीभरकर कोसते है | वैसे
इतिहास में उन्हें बहुत ज्यादा कुछ तो नहीं मिलता पर “राम का शुद्र शम्बूक को
मारना”, रामायण की “ढोल गंवार शुद्र पशु नारी” वाली चोपाई और
गुरु द्रोणाचार्य द्वारा “एकलव्य का अंगुठा गुरु दक्षिणा में मांगना”
आदि |
अभी हम यहाँ केवल एकलव्य की ही चर्चा
करेंगे | एकलव्य के विषय में इन लोगों का कहना है की एक स्वर्ण ब्राह्मण गुरु द्रोणाचार्य
ने एक शुद्र बालक एकलव्य का अंगूठा इस लिए गुरु दक्षिणा में मांग लिया की पांडवो
यानि राजपुत्रो का कोई प्रतिस्पर्धी न रहे | और एक शूद्र अच्छा तीरंदाज न बन सका |
या बनने से रोक दिया | इस प्रश्न का उत्तर यदि थोड़ी सी भी मेहनत करे तो हमें
महाभारत में ही मिल जायेगा है | देखें ‘एक बार परशुराम
जेष्ठ की दोपहरी में कर्ण की जंघा पर सर रखकर सो रहे रहे थे कि कर्ण को बिच्छु
जहरीला कीड़ा काट लेता है | काफी खून निकलता है पर कर्ण इस असहनीय दर्द को सहज भाव
से अविचिलित होकर सह जाते है | अचानक रक्त की गर्मी महसूस कर परशुराम की आँख खुल
जाती है तो देखते है कर्ण सहज भाव से दर्द सह रहा है और उफ़ तक नहीं की | तब उन्हें
कर्ण पर शक होता है और पूछते है की कर्ण तूने ब्राह्मण युवक के नाते मुझसे शिक्षा
ग्रहण की है | पर तू ब्राहमण नहीं है इतना कष्ट ब्राह्मण बालक नहीं क्षत्रिय बालक
ही सह सकता है बता तू कौन है ? पर कर्ण को तो अपना पता ही नहीं था तो बताता क्या ?
तब परशुराम कहते है कि तू निश्चित ही क्षत्रिय है | और तब परशुराम कर्ण को
निर्विकार भाव से श्राप देते है की “छल – कपट और धोखे से प्राप्त की गई शिक्षा
फलदाई नहीं होती कर्ण | और तूने भी छल से शिक्षा ग्रहण की है जा कर्ण जब तुझे इस
शिक्षा की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी तब ये तेरा साथ नहीं देगी |” और एक दिन
कुरुक्षेत्र में लड़ते हुए रेत में रथ का पहिया धसने के कारण इसी श्राप के चलते कर्ण
मारा जाता है |’ एक ब्राहमण एक क्षत्रिय की मौत का कारण बनता है इस बात की कोई
चर्चा भी नहीं करता | एकलव्य ने भी छल और धोखे से शिक्षा ग्रहण की थी || दूसरी बात
एकलव्य सव्यसाची था याने दोनों हाथो से तीर चलाने में माहिर | और तीर संधान में
सीधे हाथ के अंगूठे का इतना महत्त्व होता ही नहीं जितना की तर्जनी और माध्यमा
अँगुलियों का | जो घ्रणा आज के दलित चिंतकों के मन में है वह एकलव्य के मन में भी
होनी चाहिए थी पर लेशमात्र भी एकलव्य के मन में नहीं थी | क्योंकि युधिष्ठिर के
राजसूय यज्ञ में एकलव्य अतिथि गणों के मध्य विराजमान था | एक बात और एकलव्य जरासंध
के सेनापति का पुत्र था | ये बाते उसे सहानुभूति का पात्र नहीं बनाती है |
महाभारत का ही एक अन्य प्रसंग भी इसी सन्दर्भ
में विचारणीय है | कृष्ण और बर्बरीक का | ‘महाभारत युद्ध की घोषणा हो जाती है |
योद्धा अपनी अपनी दिशा तय कर कुरुक्षेत्र की ओर बढ़ते हैं | वीर बालक बर्बरीक भी
माँ से स्वीकृति ले कि “हारने वाले की ओर से ही युद्ध करूँगा” कुरुक्षेत्र के लिए चल
पड़ता है | कृष्ण को पता चलता है की ये तो अजेय है युद्ध की
बाजी पलट देगा | अत: परीक्षा लेते है | कृष्ण ब्राह्मण का वेश धारण कर बर्बरीक को
रास्ते में रोक कर पीपल के पेड़ के सारे पत्ते बींधने की परीक्षा लेते है | एक
पत्ता कृष्ण ने पैर से छुपा रखा था तीर सारे पत्ते बींधकर अंततः पैर के चक्कर
लगाने लगा | बर्बरीक ने कहा महाराज पैर हटा लो वरना ये तुम्हारे पैर को क्षति
पहुँचा देगा | बर्बरीक के पास केवल तीन ही बाण थे पर ये त्रिलोक विजय के लिए काफी
थे | कृष्ण ये बात जानते थे | अत: इस ब्राह्मण ने बालक बर्बरीक से दान की इच्छा
व्यक्त की | बालक ने सहर्ष स्वीकार कर लिया | कृष्ण ने तुरंत दान में बर्बरीक का
शीश मांग लिया | बालक हतप्रभ रह गया | पर वचन की तो हाँ कर चुका था | बर्बरीक समझ
गया की तेरा सामना किसी आम मनुष्य से नहीं हुआ है | अत: उसने ब्राह्मण से वास्तविक
स्वरूप में आने को कहा | कृष्ण वास्तविक स्वरूप में आये और बताया की बड़ा युद्ध
होने जा रहा है अत: किसी बड़े वीर की बलि युद्ध भूमि को चाहिए थी भला आपसे उपयुक्त
और कौन हो सकता है इस काम के लिए | तब बर्बरीक की इच्छानुसार कृष्ण ने उसे अपने
विराट स्वरूप के दर्शन भी कराये और वरदान भी दिया की ‘तू कलियुग में मेरे नाम से
पूजा जायेगा’ | तब बर्बरीक ने अपनी इच्छा भी बताई कि मैं तो युद्ध देखने के लिए
आया था | कृष्ण ने कहा तेरी ये इच्छा मै पूरी करूँगा और उसका सर एक ऊँचे टीले पर
स्थापित कर दिया जाता है | यहाँ एक ब्राह्मण एक क्षत्रीय बालक का सर यूँ ही बातों
- बातों में ले लेता है | पर कभी किसी को चर्चा करते सुना क्या ? बर्बरीक के मन
में भी कोई विद्वेष कृष्ण के प्रति नहीं था | इसका उदहारण भी महाभारत में ही है |
युद्ध के अंत में विजय का श्रेय लेने को पांडवो में अहंकार आ जाता है की युद्ध
मेरे कारण जीता गया | तब कृष्ण ही समाधान निकलते है की एक व्यक्ति है बर्बरीक का
शीश जिसने सारा युद्ध देखा है सही निर्णय वो ही कर सकता है | सब लोग बर्बरीक के
शीश के पास जाते है | शीश बताता है की ‘मुझे तो पूरे युद्ध में कृष्ण का सुदर्शन
चक्र की घुमाता, रक्त बहता, सर धड से अलग करता नजर आ रहा था | युद्ध का असली विजेता
तो कृष्ण ही है |’ यदि बर्बरीक के मन में जरा भी कृष्ण के प्रति विद्वेष होता तो
वो विजेता अपनी सर कलम करने वाले को ही बताता क्या ?
गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य तथा कर्ण को भी
शिक्षा देने से मना कर दिया था क्योकि कर्ण एक सारथि अधिरथ का पुत्र था | द्रोणाचार्य ने कहा था
कि मै राजकुमारों को ही शिक्षा देता हूँ | एक और बात गुरु द्रोणाचार्य कुलगुरु थे
| वे क्यों चाहेंगे की राजपरिवार का कोई प्रतिस्पर्धी हो ? वे तो चाहेंगे की उनका
शिष्य ही विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो | ओर उसके लिए वो निरंतर प्रयासरत भी
रहे | इन्होने इसीलिए एकलव्य और कर्ण को शिक्षा देने से मना भी कर दिया, क्योंकि
फिर दोनों के साथ न्याय नहीं कर पाते | एक बात और यदि आज हम निष्पक्षता से विचार
करें तो देखेगें की सारा ज्ञान ब्राह्मणों के पास था | देवताओं के बाद परशुराम,
विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि के पास सर्वोच्च शास्त्र और शस्त्र ज्ञान था | पर ये लोग
कभी चक्रवर्ती सम्राट नहीं बने बल्कि राजकुमारों को ही बनाया | चाणक्य एक बालक को
मिट्टी से उठाकर चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मोर्य बना देते हैं | दूसरी बात शस्त्र
ज्ञान हमेशा राजकुलों के अधीन ही तो रहे और रहने चाहिए भी | क्या आज भी कोई
रिवोल्वर या कोई अन्य हथियार लेकर चल सकता है | सरकारें लाइसेंस देती है | तब जाकर
कोई शस्त्रधारी बनता है | कोई बड़े हथियार के बारे में तो सोंच भी नहीं सकता | आज
भी ‘इसरो’ या ‘डीआरडीओ’ का कोई कर्मचारी अपने संसथान की जानकारी बाहर दे सकता है |
या कोई प्रशिक्षण दे सकता है’ नहीं | फिर एकलव्य क्यों पारंगत हो | आगे चलकर
हस्तिनापुर साम्राज्य के लिए कांटा बने | ऐसा गुरु द्रोणाचार्य क्यों चाहते ? जरा
सोचें मे और आप भी नहीं कर पाते | कोई भी आएगा और शस्त्र सञ्चालन में निपुण हो
जायेगा | यहाँ एकलव्य या कर्ण का प्रश्न नहीं है ये तो सीधे साम्राज्य के निष्कंटक
और सर्वोच्चता का है | कोई कुछ भी सोचे वो अलग बात है |