“ओंकारनाथ ठाकुर”
(
जिन्होंने ६ माह से नहीं सोये इटली के शासक मुसोलिनी को अपने संगीत के सम्मोहन से यूँ ही सुला दिया)
(1897–1967)
भारत के प्रसिद्द शिक्षाशास्त्री,
संगीतज्ञ एवं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीतकार थे । उनका सम्बन्ध ग्वालियर घराने से था । वे तत्कालीन संगीत परिदृष्य के सबसे आकर्षक
व्यक्तित्व थे। पचास और साठ के दशक में पण्डितजी की महफ़िलों का जलवा पूरे देश के
मंचों पर छाया रहा। पं॰ ओंकारनाथ ठाकुर की गायकी में रंजकता का समावेश तो था ही,
वे शास्त्र के अलावा भी अपनी गायकी में ऐसे रंग उड़ेलते थे कि एक सामान्य
श्रोता भी उनकी कलाकारी का मुरीद हो जाता। उनका गाया वंदेमातरम या '
मैया मोरी मैं नहीं
माखन खायो'
सुनने पर एक रूहानी अनुभूति होती है।
पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का जितना प्रभावशाली व्यक्तित्व था
उतना ही असरदार उनका संगीत भी था। उन्होने
एक बार सर जगदीशचन्द्र बसु की प्रयोगशाला में पेड़-पौधों पर
संगीत के स्वरों के प्रभाव विषय पर एक बार
वे अभिनव और सफल प्रयोग किया था। इसके अलावा १९३३ इटली की यात्रा पर थे, उन्हें ज्ञात हुआ की वहाँ के शासक मुसोलिनी को पिछले छः मास
से नींद नहीं आई है । वहां के पंडितजी के
आयोजको को भी पता चला की पंडितजी के संगीत में बहुत बड़ा जादू और सम्मोहन है |
आयोजको ने पंडितजी से पूछा की “आप हमारे शासक मुसोलिनी को संगीत के जादू से सुला
सकते है क्या, यहाँ के सभी प्रयास विफल हो चुके है |” पंडित जी ने हलके से मन से
कहा की “देख लेंगे” | उपरी मन से आयोजको ने अगले दिन मुसोलिनी के समक्ष पंडितजी का
कार्यक्रम रख दिया और देखने को इटली की जनता भी बड़ी संख्या में पहुची | पण्डितजी ने
मुसोलिनी के समक्ष सहज भाव से प्रस्तुति शुरू की जनता भाव विभोर हो गई | कुछ देर
में मुसोलिनी भी झूमने लगे, और उनके गायन से प्रभावित हो उसे तत्काल नींद आ गई ।
उनके संगीत में ऐसा जादू था कि आम से लेकर खास व्यक्ति भी सम्मोहित हुए बिना नहीं
रह सकता था। इटली की जनता पंडित जी की कला का और भारत की प्रतिभा का लोहा मान गई |
“कोहेनूर हीरा”
भारत की विश्व विख्यात धरोहर
कोहेनूर हीरा, जिसे अंग्रेज भारत से दूर लंदन ले गए थे, भले ही दुनिया का सबसे अनमोल
हीरा क्यों ना हो लेकिन उसके साथ मौत के आलावा पूरी तरह तबाही और बर्बादी भी जुडी
है | कोहेनूर – (कोह-ए-नूर), का अर्थ है रोशनी का पहाड़, लेकिन इस हीरे की रोशनी ने ना
जाने कितने ही साम्राज्यों को तबाह कर दिया | आंध्र-प्रदेश के गुंटूर जिले में
स्थित एक खदान से इस बेशकीमती हीरे का निकलना बताया जाता है । ऐतिहासिक दस्तावेजों
में सबसे पहले इस हीरे का उल्लेख बाबर के द्वारा 'बाबरनामा' में मिलता है । ‘बाबरनामा’ के
अनुसार यह हीरा कोहेनूर नाम से पहले सन 1294 में ग्वालियर के एक गुमनाम राजा के पास था लगभग 1306 ई. के बाद से ही इस हीरे को
पहचान मिली । कोहेनूर हीरा हर अपने धारण कर्ता के लिए श्राप बना | केवल ईश्वर और महिलाएँ ही इसके श्राप
से मुक्त रहीं इतिहास से जुड़े दस्तावेजों के अनुसार 1200-1300 ई. तक इस हीरे को गुलाम , खिलजी, व लोदी साम्राज्यों के
पुरुष शासकों ने अपने पास रखा पर श्राप के कारण सारे साम्राज्य अल्प
कालीन रहे । 1083 ई. से शासन कर रहा काकतीय वंश
भी 1323 ई. कोहिनूर के आते ही अचानक
बुरी तरह ढह गया । काकतीयों के पतन के पश्चात यह हीरा 1325 से 1351 ई. तक मोहम्मद बिन तुगलक के पास
रहा और 16वीं शताब्दी के मध्य तक यह
विभिन्न मुगल सल्तनत के पास रहा और सभी का कल्पनातीत अंत हुआ | शाहजहां ने इस
कोहेनूर हीरे को अपने मयूर सिंहासन में जड़वाया लेकिन उनका आलीशान और बहुचर्चित
शासन उनके बेटे औरंगजेब ने छीनकर शाहजहाँ को उसके ही महल में नजर बंद कर दिया | उनकी
पसंदीदा पत्नी मुमताज का इंतकाल हो गया | 1605 में एक हीरों जवाहरातों का पारखी फ्रांसीसी यात्री जो भारत आया उसने कोहेनूर हीरे को
दुनिया के सबसे बड़े और बेशकीमती हीरे का दर्जा दिया । 1739 में फारसी शासक नादिर शाह भारत
आया और उसने मुगल सल्तनत को परास्त किया । 1747 में नादिर शाह का भी कत्ल हो गया और कोहेनूर उसके उत्तराधिकारियों के हाथ में आ
गया लेकिन कोहेनूर के श्राप ने उन्हें भी नहीं छोड़ा । उनसे यह हीरा पंजाब के राजा
रणजीत सिंह के पास गया और कुछ ही समय राज करने के बाद रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई
और उनके बाद उनके उत्तराधिकारी गद्दी हासिल करने में ना कामयाब रहे । अन्ततः ये
हीरा ब्रिटिश शासन के अधिकार में चला गया और अब उनके खजाने में शामिल हो गया। भारत
में अंग्रेजी शासन के दौरान इसे ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिजराएली ने
महारानी विक्टोरिया को तब भेंट किया जब सन 1877 में उन्हें भारत की भी सम्राज्ञी घोषित किया । ब्रिटिश राजघराने को इस हीरे के श्रापित होने की बात पता थी | इसीलिए 1936 में इस हीरे को किंग जॉर्ज
षष्टम की पत्नी क्वीन एलिजाबेथ के क्राउन में जड़वा दिया गया जो तब से लेकर अब तक वहीँ
है | कोहिनूर में कुछ बदलाव भी हुए | 1852 में जब ८००० पोंड खर्च कर तराशा गया तो यह 186.16
कैरेट / 186.06 कैरेट (37.2 ग्राम) से घट कर 105.602 कैरेट / 106.6 कैरेट (21.6 ग्राम) का हो गया, किन्तु इसकी आभा में कई गुणा
बढ़ोत्तरी हुई। जिससे इस रत्न का भार 81 कैरट घट गया । हीरे को मुकुट में अन्य दो
हजार हीरों सहित जड़ा गया । आजादी के फौरन बाद भारत ने कई बार कोहिनूर पर अपना
मालिकाना हक जताया है | 150 हजार करोड़ रुपये मूल्य के
हीरे की असली हकदार महाराजा दिलीप सिंह की बेटी कैथरीन की सन् 1942 मे मृत्यु हो गई | वैसे अनेक भारतीयों का ऐसा भी
मानना है की श्री कृष्ण की श्यामान्तक मणि ये ही कोहेनूर हीरा है