Thursday 28 September 2023

“राय प्रवीण”

 

                        “राय प्रवीण”

कांग्रेस के आशीर्वाद, कम्युनिस्टों के प्रभाव और सेकुलर की कुटिल चालों से अकबर की महानता के चर्चे भारत के हर बच्चे की जुबान पर अभी तक भी है । अकबर की उस तथाकथित महानता की पुराण में एक किस्सा आज मैं भी जोड़ता हूं । ओरछा साम्राज्य जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड का एक हिस्सा  है | ये ओरछा मुगलकाल में स्वतंत्र स्वाभिमानी, गौरवशाली क्षत्रिय इतिहास का एक अभिन्न अंग था । अकबर के कालखंड में वहां के राजा की एक राजदासी “राय प्रवीण” थी । जो अनिंद्य सुंदरी, हिंदी काव्य में जिसे असुर्यम्पश्या (जिसे सूर्य ने भी न देखा हो) कहा गया है । हालांकि सौंदर्य के रूप में रानी पद्मिनी के उदहारण और उपमा आज भी दिए जाते हैं | पर ओरछा की ये राज गणिका भी अत्यंत सुन्दर थी | जो देखे देखता ही रह जाय । ओरछा की इस राजसुंदरी के सौंदर्य के चर्चे ओरछा राजमहल के परकोटे को फांदकर अकबर के आगरा स्थित महल तक पहुंच गए । मुगलों के दरबार में किसी महिला के सौंदर्य के चर्चे पहुंचे और वह दरबार में उपस्थित ना हो ऐसा संभव ही नहीं था । राज्यादेश जारी हुआ कि “ओरछा  की उस सुंदरी को मुग़ल दरबार में पेश किया जाय | हम भी तो देखे, उसके सौंदर्य को ।“ और एक दिन वह राज दासी अकबर के दरबार में प्रस्तुत थी । ओरछा की उस निरीह परंतु राजपूती स्वाभिमान में पली बढ़ी दासी को अकबर के दरबार में प्रस्तुत किया गया । अकबर के सामने प्रस्तुत हो इस दासी ने सिर्फ 2 पंक्तियां पढ़ी । सिर्फ उन दो पंक्तियों के सरल और सहज भाव से राय प्रवीण ने अकबर को उसी के भरे दरबार में जनता, सभासदों, और उसी के नवरत्नों, के सामने जलील कर नंगा का दिया | पंक्तियाँ निम्न प्रकार से हैं |

विनती राय प्रवीन की, सुनिए साहि सुजान।

जूठी पातरि भखत हैं, बारी वायस, स्वान॥

राय प्रवीण कहती है कि (हे शाही सुजान राय प्रवीण की विनती सुनिए, झूठी पत्तल तो कुत्ता, सूअर और कोआ खाता है |) राय प्रवीण का भाव था, कि हे शाही सुजान झूठी पत्तल तो सिर्फ कोआ, सूअर और कुत्ता ही खता है | आप इनमे से कौन है ? इतना सुनते ही अकबर पर घड़ों पानी पड गया | अपने ही दरबार में अपने ही लोगों के बीच अकबर जलील और निष्शब्द था | तुरंत आदेश दिया की दासी को ससम्मान ओरछा छोड़कर आओ | एक अदनी सी दासी ने तथाकथित महान अकबर को उसके ही भरे दरबार में अपमानित कर दिया | राय प्रवीण ने उसे दरबार में सर उठने के योग्य भी नहीं छोड़ा |

लेखक :- शीलेन्द्र कुमार चौहान |

 

Monday 22 May 2023

 

             “तात्या टोपे (महान स्वतंत्रता सेनानी)

तात्या टोपे का नाम भारत के १८५७ ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में सम्मान से लिया जाता है | वे इस संग्राम में न केवल सेनानायक व रणनीतिकार थे बल्कि उनकी भूमिका महत्वपूर्ण प्रेरणादायी और बेजोड़ थी | उनका जन्म १८१४ ई. में महाराष्ट्र के नासिक के समीप पटोदा जिले के येवला नामक ग्राम में ‘पांडुरंग राव भट्ट’ के घर ८ संतानो में सबसे बड़े पुत्र के रूप में हुआ था |  इनके पिता बाजीराव पेशवा द्वितीय के यहाँ घरेलू नोकर थे | इनका वास्तविक नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग राव’ था | वे बाजीराव के करीब आ गए और उनके विस्वसनीय  बन गए | तथा उनके साथ बिठुर आ गए और यही लक्ष्मीबाई और नाना साहेब के साथ शिक्षा पाई | तभी निर्धारित समय से पूर्व १० मई को क्रांति की ज्वाला भड़क उठी | तब ये सभी लोग कानपूर में थे | 1857 की क्रांति के इतिहास की रक्त रंजित गौरव गाथा सेनानियों ने अपने खून से लिखी | जब नाना साहेब, लक्ष्मी बाई आदि बड़े चहरे अंग्रेजों की तलवार की भेंट चढ़ गए तो तात्या टोपे अपने को बचाते और अंग्रेजों को छकाते अंतिम सांस तक लम्बी लडाई लडते रहे | क्रांतिकारियों ने 4 जून 1857 को कानपुर ७ जून को झाँसी १४ जून को ग्वालियर पर कब्ज़ा कर लिया | अंग्रेज संभले और इलाहबाद से सेना बुला १७ जोलाई को पुन: कानपूर पर कब्ज़ा कर लिया | कानपूर का पतन होने पर गुप्त मार्ग से निकल तात्या ग्वालियर पहुंचे और वहां से सेना लेकर कालपी पहुंचे | यहाँ से जनरल विन्डहम को कानपूर के पास घेर लिया | तथा दो दिन की कड़ी मशक्कत के बाद कानपूर पर पुन: कब्ज़ा कर लिया | लखनऊ में क्रांतिकारियों को हराता हुआ केम्बेल अपनी सेना ले विन्ढम की मदद को चल पड़ा | तात्या ने अयोध्या में गंगा का पुल उडा केम्बेल का गंगा पर करना रोक दिया | फिर भी केम्बेल तोपों की मार करता हुआ २० नवम्बर को कानपूर आ पहुंचा | तथा १ व २ दिसंबर को तात्या की सेना पर हमला बोल दिया | अंग्रेजों की घेरेबंदी तोड़ तात्या को पीछे हटना पडा और कालपी पहुँच गए | यहाँ से २२ हजार की सेना ले लक्ष्मीबाई की सहायता को झाँसी के लिए बेतवा नदी के पास पहुंचे पर यहां पर भी  अंग्रेजों से सामना हो गया | अप्रेल १९५८ के इस युद्ध में भी तात्य को पीछे हटाना पडा | ग्वालियर पहुंचे तथा सेना एकत्र की | मई के अंत में गोपालपुर जाकर राव साहेब, रानी लक्ष्मी  बाई, नवाब बांदा आदि को ग्वालियर पर चढ़ा लाये कालपी के पतन के बाद ये लोग यहाँ एकत्र थे | सिंधिया की पूरी सेना इन के साथ आ गई पर राजा सिंधिया को भागकर आगरा शरण लेनी पड़ी | ग्वालियर के किले पर क्रांतिकारी विजय जश्न मना ही रहे थे की अंग्रेज सेना ने सिंधिया को साथ लेकर ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी | क्रांतिकारीयों को पराजय हाथ लगी | रानी लक्ष्मीबाई युद्ध में खेत रही | तात्या वहां से बची सेना और राव साहब के साथ मथुरा पहुंचने में सफल हुए | बार बार की पराजय के कारणों और परिस्थितियों पर विचार कर तात्या ने रणनीति बदलने का निश्चय किया | जिसमे अंग्रेजों से आमने सामने के युद्ध के बजाय गुरिल्ला युद्ध करने की नीति बनी | अंग्रेजों पर अंतिम और निर्णायक प्रहार के लिए तात्या स्वतंत्रता सेनानियों को संगठित कर नर्मदा पार कर दक्षिणा दिशा में जाना चाहते थे | जबकि अंग्रेज सेना उन्हें नर्मदा से पहले ही दबोचने की फ़िराक में थी | तात्या ने जयपुर जाते जाते टोंक पर चढ़ाई कर दी | जहाँ से उन्हें टोंक की सेना मिल गई | अंग्रेजी सेना दो तरफ से इनकी सेना का पीछा कर रही थी | वह इंद्रगढ (कोटा), बूंदी, नीमच, नसीराबाद, होते हुए ७ अगस्त १९५८ को भीलवाडा पहुंचे | यहाँ अंग्रेजी सेना से फिर उनका मुकाबला हुआ | पर तात्या उसे चकमा देकर नाथद्वारा जा पहुंचे | यहाँ फिर १४ अगस्त को अंग्रेज सेना ने इन्हें आ घेरा | इस युद्ध में भी इन्हें अपार क्षति उठानी पड़ी पर हार नहीं मानी | इस समय अंग्रेज सेना इनका तीन ओर से पीछा कर रही थी | पर तात्या तीनों की आँख में धूल झोंक कर चम्बल पार करने में सफल रहे | और अब ये झालरपाटन पहुंचे तो अंग्रेजों के पिट्ठू राजा ने इनपर हमला कर दिया | पर उसकी सारी सेना तात्या से मिल गई | तब उस राजा को ३२ तोपें, रसद, १५ लाख रुपये और अन्य युद्ध सामग्री  देकर तात्या से संधि करनी पड़ी | तात्या की ५ दिन यहाँ रुक कर दक्षिण दिशा में आगे बढ़ने की योजना थी | तात्या टोपे की विशेषता और प्रतिभा थी कि एक दिन उनके पास सेना और  रसद शून्य हो जाती थी और अगले दिन उनके नाम के जादू से राजाओं रजवाड़ों की सेना अपने पूरे साजों सामन के साथ उनके नत मस्तक किये खड़ी मिलती थी | इनकी गिरफ़्तारी के मनसूबे बांधे इनके पीछे पड़ी अंग्रेज सेना हाथ मालती रह जाती थी | झालारपाटन से तात्या रामगढ़ पहुंचे और महू इंदौर होते हुए ईसागढ़ (ग्वालियर रियासत) पहुंचे | इन दस महीनो में अंग्रेजों की ५ सेनाएं हाथ धोकर उनके पीछे पड़ी रही और हारती रही | ईसागढ़ में तात्या ने अपनी सेना दो भागों में बाँट दी | एक की कमान राव साहब पेशवा दूसरी की कमान स्वयम तात्या ने संभाली | दोनों अलग अलग मार्ग से होते हुए ललितपुर पहुंचकर पुन: मिले | यहाँ से पहाड़ जंगल नदी घाटियों के रास्ते चलकर आखिर तात्या सेना सहित नर्मदा पार करने में सफल हो गए | होसंगाबाद से तात्या के नागपुर पहुँचने पर न केवल भारत स्थित अंग्रेज सेनानायक आश्चर्य चकित हुए वरन इंग्लैण्ड और योरोप में भी तात्या के सैन्य चातुर्य की भूरी भूरी प्रशंसा हुई | इधर तात्या अपना पीछा करने वाली अंग्रेजी सेनाओं की रोकथाम के लिए उनकी डाक लूटने, तारों की लाइन काटने और उनकी चोकियों को नष्ट करने की व्यवस्था करते हुए नर्मदा के उद्गम स्थल तक पहुँच गए |  करजन गाँव के पास अंग्रेज सेना से घिर जाने पर वे नर्मदा नदी में कूद पड़े और तैरकर नदी पारकर बांसवाडा पहुंह गए | यहाँ शहजादा फिरोजशाह भी अपनी सेना के साथ इनसे आ मिला | ग्वालियर का एक दरबारी पाडोन का राजा मानसिंह भी इनके साथ हो लिया | ये सब १३ जनवरी १८५९ को इंद्रगढ़ पहुंचे १६ जनवरी को अंग्रेज सेना ने इन्हें चारों ओर से घेर लिया | तात्या पकड़ में नहीं आये और २१ जनवरी को अलवर के पास सिखार में पुन: प्रकट हुए | तात्या कुछ दिन विश्राम करने और अंग्रेजों से लोहा लेने की आगे की योजना और रणनीति बनाने की मंशा से सेना छोड़ मित्र मानसिंह के यहाँ पाड़ोंन पहुंचे | परन्तु नियति ने कुछ और ही सोच रखा था इस मित्रघाती गद्दार मानसिंह ने अंग्रेजों से घूस लेकर ७ अप्रेल १८५९ में तात्या को गिरफ्तार करा दिया | और अंग्रेजों ने न्याय का नाटक करके १८ अप्रेल १८५९ को भारत माता के वीर सपूत और क्रांति के महा नायक तात्या टोपे को फांसी पर लटका दिया ||

                                      लेखक :-    

                                                                    शीलेन्द्र कुमार चौहान

 

Wednesday 26 April 2023

 

                  “संस्कृत का अद्भुत चमत्कार”

मित्रों बचपन में हाई स्कूल इंटर में जब हम पढ़ते थे तो हमें बताया जाता था । कि एक ही अंग्रेजी वाक्य मे अंग्रेजी वर्णमाला के 26 के 26 अक्षर है । निसंदेह यह विषय आपके संज्ञान में भी आया होगा अतः आपके लिए भी यह जानना जरूरी है | अगर आपको अपनी अस्मिता और पुरातन संस्कृति पर गर्व है तो । वो अंग्रेजी वाक्य कुछ इस प्रकार से है :- “द क्विक ब्राउन फॉक्स जम्प्स ओवर द लेजी डॉग” । साथ में यह भी कहा जाता था, कि हिन्दी वर्णमाला इतनी कठिन और दुरुह है कि इसे एक श्लोक या कवितापंक्ति में संकलित नहीं किया जा सकता । लेकिन मित्रो हजारों वर्ष पूर्व धारा नगरी के न्यायप्रिय और कलाप्रेमी राजा भोजदेव ने इसे अपने एक संस्कृत ग्रन्थ के एक छंद में कर दिखाया है | जिसे हमें नहीं बताया गया | जो उनके संस्कृत ग्रन्थ "सरस्वती कंठाभरणम्" में उल्लेखित है | जिसमे संस्कृत, हिंदी भाषा के सभी 33 अक्षरों का प्रयोग है । इसमें खोजने से भी किसी अक्षर की पुनरावृत्ति नहीं मिलेगी । इसमें पूरे के पूरे 33 अक्षर हिंदी वर्णमाला के बिना दोहराए हैं । जबकि अंग्रेजी वाले वाक्य में दो तीन अक्षरों को दोहराया गया है । मुझे गर्व है अपने संस्कृति पर अपने पुरातन वांगमय पर ।संस्कृत की अद्भुत छमता, भाषा विस्तार एवं चमत्कारी रचनाएँ जो संस्कृत को विश्व की अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ठ बनाती है । इसे कभी मैकाले वादियों ने पटल पर नहीं आने दिया |

वर्ण चित्र:

वर्णों के एक अद्भुत क्रम में लिख कर एक चित्र बनाना इस विधा की खूबी है, आईये देखते हैं एक उदाहरण, निम्न श्लोक में सभी 33 व्यंजन को उनके नियत प्राकृतिक क्रम में रख कर केवल कुछ स्वर परिवर्तित कर यह श्लोक बनाया है, क ख ग घ .....ऐसे लिखते हुए ह तक का प्रयोग है । चमत्कार देखिये। 

 कः खगौघांचिच्छौजा झांञग्योsटौठीडडंढण:।

तथोदधिन पफबार्भीर्मयोsरिल्वाशिषां सह: ।

"वह कौन है, पक्षी प्रेमी, कुशाग्रता में शुद्ध, दूसरों की शक्ति को चुरा लेने में माहिर, दुश्मनों के बल को नाश करने वालों में अग्रणी, अति तीव्र निर्भय, वह कौन है जो सागर को भी भर दे ? वह माया का सम्राट आशीर्वाद का संग्रहालय और दुश्मनों का नाशक है ।"

है न यह कलाकारी क्या यह कलाकारी कहीं अन्य किसी भाषा में हो सकती है। नमन हमारी संस्कृति नमन हमारी संस्कृत नमन हमारे पौराणिक आचार्य नमन।

 शीलेन्द्र चौहान । विहिप मेरठ प्रान्त, मेरठ ।

Monday 4 July 2022

"अहिल्या बाई की न्याय प्रियता"

 

           प्रेरक प्रसंग -- "अहिल्या बाई की न्यायप्रियता"

न्यायप्रियता के मामले में अनेक नाम सामने आते है | पर उनमे एक नाम अहिल्याबाई का भी है | जिसने न्याय देने में अपने पुत्र को भी क्षमा नहीं किया | और मृत्युदंड देने को तत्पर हो गई |  बात अहिल्या बाई के ज़माने की है | इंदौर के किसी रास्ते पर एक गाय अपने मासूम बछड़े के साथ खड़ी थी | कि तभी उसी रास्ते से इंदौर की महारानी के पुत्र मालोजी राव अपने रथ से गुजरे की तभी गाय का बछड़ा बिदक कर रथ के रास्ते में आ गया और रथ से टकरा गया और कुचल कर मर गया गाय भी दौड़ी पर बेकार | मालोजीराव का रथ बछड़े को कुचल कर आगे बढ़ गया | परन्तु गाय स्तब्ध और आहात होकर वहीं खड़ी रही | कुछ देर बाद गाय अहिल्या बाई के दरबार के बहार फरियादियों के लिए लगाये गए घंटे के पास पहुँच गई | कुछ समय बाद अहिल्याब्बाई की नजर गाय पर पड़ी तो उन्होंने प्रहरी को बुलाया कारण पूछने पर प्रहरी ने कहा की ' गोमाता अन्याय का शिकार हुई है | पर मैं बताने में असमर्थ हूँ | अहिल्या बाई के दबाव देने पर प्रहरी को सारा घटनाक्रम रानी को बताना पड़ा | अहिल्या बाई ने सुबह दरबार में पुत्र मालोजी राव की पत्नी मैना बाई को बुलाकर पूछा की 'मैना बताओ तो की यदि कोई व्यक्ति माँ के सामने उसके बेटे को मार दे, तो उस व्यक्ति को क्या दंड मिलना चाहिए'| 'निसंदेह प्राणदंड माताजी ' मैना बाई ने उत्तर दिया | अहिल्या बाई ने तुरंत मालोजी राव को प्राणदंड का निर्णय सुना दिया | तथा उसी रास्ते पर उसी जगह मालोजी राव के हाथ पैर बांधकर डाल दिया गया | रथ के सारथी को अहिल्याबाई ने मालोजी राव के ऊपर से रथ को तेज गति से गुजारने का आदेश दिया | पर सारथी ने क्षमा मंगाते हुए ऐसा करने से मना कर दिया | की चाहे मेरे प्राण ले लो पर मैं ऐसा न कर पाउँगा | तब देवी अहिलाबाई स्वयं रथ पर सवार हुई और रथ को मालोजी की ओर दौड़ा दिया | तभी एक अप्रत्याशित घटना घटी वही फरियादी गाय अचानक रथ के सामने आ खड़ी हुई | गाय को हटा कर रानी ने दुबारा प्रयास किया लेकिन गाय फिर रथ के सामने आ खड़ी हुई | इस प्रकार गाय ने मालोजी राव की रक्षा की | जिस स्थान पर गोमाता अड़ गई थी वह स्थान आज भी इंदोर में अडा बाजार के नाम से जाना जाता है | गोमाता अहिल्या बाई की न्यायप्रियता से संतुष्ट हो गयी | इसी लिए मलोजीराव को क्षमा कर दिया | ऐसी न्यायप्रियता की मिसाल दिर्लभ है

                                             लेखक :- शीलेन्द्र कुमार चौहान

                                                 (अमर उजाला से साभार )

 

Saturday 18 June 2022

|| संघ और एक मुस्लिम पत्रकार ||

 - सँघ के बारे मैं एक मुस्लिम पत्रकार का  अनुभव उसी की जुबानी------

मेरे पुराने पत्रकार मित्र जफर इरशाद ने अपना यह अनुभव मुझसे मेल पर साझा किया, पढने के लिए. यह इतना spontaneous and sentimental है कि शेयर करना जरूरी लगा |

"एक पत्रकार की हैसियत से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम कई बार कवर करने गया लेकिन संघ के बारे में ज़्यादा जानकारी मुझे नहीं है. अब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संघ मुख्यालय नागपुर जाने पर जो स्यापा मचा हैं उससे कुछ अजीब लग रहा है, यह वो लोग हैं जिन्होंने संघ के समाज सेवा के कामों को नज़दीक से नहीं देखा है. मैंने एक पत्रकार की हैसियत से संघ के निस्वार्थ सामाजिक कामों को खुद नज़दीक से देखा है और उसको लिखने से आज अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ. अब संघ मुस्लिम विरोधी है या हिन्दू हितैषी इस बारे में न मुझे कोई जानकारी हैं और न ही कोई अनुभव, लेकिन इतना अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि संघ मानवता विरोधी तो नहीं है. 24 साल के पत्रकारिता कैरियर में अनेक बार हादसों या आपदाओं की कवरेज के दौरान संघ के लोगो को बिना किसी प्रचार प्रसार के खामोशी से राहत के काम करते अनेकों बार देखा लेकिन किसी सांप्रदायिक तनाव के दौरान उनकी कोई भूमिका मैंने तो नहीं देखी, अब बाकी पत्रकारों और नेताओं ने देखा हो संघ को दंगा कराते हुए तो मुझे नहीं मालूम. और हाँ एक बात और साफ कर दूँ मैं न तो संघ और न ही भाजपा से किसी भी स्तर पे जुड़ा हूँ. एक खालिस पत्रकार जिसने अपने पत्रकारिता कैरियर में कभी संघ या भाजपा की बीट भी कवर नहीं की.. 

10 जुलाई 2011 रविवार का दिन मै कानपुर में एक समाचार एजेंसी के प्रमुख रिपोर्टर के रूप में तैनात था, रविवार का दिन होने के कारण आराम से लेटा था कि दोपहर करीब एक बजे दिल्ली से मेरे संपादक का फोन आया कि फतेहपुर के पास मलवा में एक बड़ा ट्रेन हादसा हो गया है तुरंत जाने की तैयारी करो, मेरे करंट लग गया मैंने अपने रेलवे के सूत्रों को फोन किया उन्होने बड़ा एक्सिडेंट होने की बात कही, मै तुरंत रवाना हो गया. करीब एक घंटे बाद मै घटना स्थल पर पहुंचा, घटना स्थल मलवा कसबे से 10-12 किलोमीटर दूर एक वीरान स्थान पर था जहां पहुंचने के लिए मुझे करीब 4 किलोमीटर खेतो से पैदल जाना पड़ा. वहां दूर दूर तक कोई आबादी नहीं थी. 

घटनास्थल पर पहुंच कर मै अपने रिपोर्टिंग काम में लग गया और फोन पर अपने दिल्ली में संपादक और डेस्क को लगातार खबर लिखवाने के अपने काम में जुट गया, बोगियों से एक एक लाश निकाली जा रही थी और घायलों को अस्पताल पहुंचाया जा रहा था, बड़ा ही दर्दनाक मंज़र था. किसी बच्चे से उसके माँ बाप बिछड़ गए थे तो किसी का पति और भाई, कोई रो रहा था तो कोई ज़ख्मों के दर्द से कराह रहा था. बोगियों से लाशे निकाली जा रही थी और उन्हें पास के एक खेत में रखा जाने लगा, तभी मैंने देखा कुछ खाकी हाफ़ पैंट पहने लोग आए और ट्रेन से निकाले गए शवों पर सफेद कपड़ा डालने लगे. जैसे ही कोई शव आता वो खाकी पैंट पहने लोग शव को कपड़े से ढक देते क्योंकि शव बहुत ही बुरी तरह से कटे और अंग भंग थे, बाद में उन शवों को पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया जाता. 

अब मै वहां से हट कर थोड़ी दूर उस जगह पर आया जहाँ ट्रेन दुर्घटना में मारे गए लोगो के परिजन बेहाल भूखे प्यासे बैठे रो रहे थे और अपने खोए बिछड़े परिजनों की सलामती की दुआ मांग रहे थे. तभी मैंने देखा कि कुछ लोग यहां बैठे यात्रियों और उनके परिजनों को चाय, पानी और बिस्कुट दे रहे हैं. मेरे अलावा वहाँ करीब दो दर्जन पत्रकार भी खबरों के अपने काम में लगे थे, तभी एक व्यक्ति ने मेरी तरफ एक प्लास्टिक के ग्लास में चाय और दो बिस्कुट बढ़ाए, करीब चार घंटे से काम कर रहे मेरे और अन्य पत्रकारों के लिए उस वीरान जगह में यह चाय किसी फाइव स्टार होटल की चाय से कम नहीं थी. 

अब मेरे पत्रकार मन में यह जिज्ञासा जगी कि अखिर यह लोग कौन है जो ऐसे मुफ्त में चाय बिस्कुट और पानी सबको बांट रहे हैं. क्या यह काम सरकार के लोग कर रहे हैं?  मैंने एक साहिब को रोक कर पूछा भाई साहिब आप यह क्यों और किसकी तरफ से बांट रहे हैं? वो मुस्कुराए और कहा जब आपको और  चाय चाहिए तो वहां पीपल के पेड़ के नीचे आ जाइएगा. मैं जिज्ञासा शांत करने के लिए उनके पीछे पीछे थोड़ा दूर पीपल के पेड़ के नीचे गया. वहां एक अजब नज़ारा देखा, वहां पर करीब दो दर्जन घरेलू महिलाये बैठी सब्ज़ी काट रही थी और आटा गूंथ रही थी, पास में एक बड़े से चूल्हे पर चाय चढ़ी थी और सैकड़ों बिस्कुट के पैकेट और ड्रम में पानी भरा रखा था जिसे पॉलिथीन की थैली में भरा जा रहा था लोगो को देने के लिए. 

एक कुर्ता पायजामा पहने वरिष्ठ व्यक्ति सभी महिलाओं और पुरुषों को जल्दी जल्दी काम करने के निर्देश दे रहे थे, मैं उनके पास पहुंचा उनका नाम पूछा लेकिन वो मुस्कुरा दिए लेकिन कुछ बोले नहीं. मैंने बताया मैं जफर हूँ पत्रकार, आप किस संगठन या संस्था से हैं आप अपना नाम बताए मैं आप की इस निस्वार्थ सेवा पर खबर लिखूंगा, खबर लिखने का नाम सुनते ही वो साहिब हमसे दूर चले गए..और बिना किसी यात्री या घायल का नाम या धर्म पूछे उन्हें चाय और पानी देने लगे.. 

मैं भी ट्रेन से निकलने वाले शवों की गिनती और राहत बचाव कार्य में लगे अधिकारियों से बात करने और खबर लिखवाने के अपने काम में व्यस्त हो गया. रात करीब 12 बज गए थे और ट्रेन से शव निकालने का काम अभी भी जारी था,अचानक वही दोपहर वाले साहिब मेरे पास आए और एक पॉलिथीन का पैकेट पकड़ा दिया, मैंने पूछा भाई साहिब यह क्या है, उन्होने कहा कुछ नहीं चार रोटी और सब्ज़ी है बस, आप दोपहर से खबर लिखवा रहे हैं कुछ खा लीजिए, भूख लगी होगी आपको, भूख वाकई बहुत ज़ोरदार लगी थी मुझे लेकिन मैंने कहा भाई मैं खाऊँगा तो लेकिन आप अपना परिचय दे पहले, उन्होंने कहा वादा करे कि आप छापेंगे नहीं कुछ. मैंने कहा ठीक है, तब उन्होंने बताया कि वो लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता है और वो आपस मे सहयोग  कर यहां ट्रेन हादसे में पीड़ित लोगो के परिजनों के लिए खाने पीने की व्यवस्था कर रहे हैं. 

मेरा पत्रकार मन जागा मैंने कहा इस पर तो बहुत बढ़िया खबर लिखी जा सकती है, आप अपना नाम बताए, उन्होने कहा नाम नहीं बताएंगे और आपने पहले ही खबर न लिखने का वादा किया है, हमने पूछा यह महिलाये जो दिन भर चाय खाना बना रही है यह कौन है, उन्होंने कहा कि यह हमारे घर परिवार की महिलाये हैं. हमने पूछा कि जो यह शव ट्रेन से निकल रहे हैं उन पर सफेद कपड़ा आप डाल रहे हैं वो कहा से ला रहे हैं, उन्होंने कहा कि हमारे लोगो में जिसकी कपड़े की दुकान है वो कपड़े निशुल्क दे रहा है, जिसकी खाने के सामान की दुकान है वो आटा तेल दे रहा है, जिस सदस्य की जिस चीज़ की दुकान है वो निस्वार्थ भाव से सामान लाकर दे रहा है, हमने पूछा कि संघ तो हिंदुओं का संगठन है यहाँ इतने लोगो मे आप कैसे काम कर रहे हैं? उन्होने कहा भाई साहिब हम सभी रेल दुर्घटना में घायल हुए लोगो और उनके परिजनों को एक तरफ से एक साथ खाने पीने का सामान दे रहे हैं हम किसी का नाम नहीं पूछ रहे हैं. हमारे संगठन का काम पीड़ितों की मदद करना है न कि नाम और धर्म पूछना. मैंने पूछा आप तो शवों पर सफेद कपड़ा भी डाल रहे हैं, इस पर वो बोले जो भी शव ट्रेन से निकल रहा है हम उस पर कपड़ा डाल रहे हैं, हमें उस शव का नाम न मालूम करना है न इसकी कोई ज़रूरत है. इतना कह कर खुदा का नेक बंदा वहां से जाने लगा बिना अपना नाम बताए बिना अपनी पहचान बताएँ. साथ में इस वादे के साथ कि मैं यह खबर कहीं नहीं छपवाउंगा |

मै घटना स्थल पर करीब 36 घंटे रहा लेकिन इन लोगों को लगातार सेवा करते देखता रहा पीड़ितों की, पत्रकारों की, वहां ड्यूटी कर रहे अधिकारियो की. और बाद में मैंने सारे अखबार देखे किसी अखबार में इन निस्वार्थ भाव से सेवा करने वालों का नाम कही नहीं छपा था.." |        (जगदीश उपासने की कलम से )

Friday 23 October 2020

“आर्य हीभारत के मूलनिवासी हैं विदेशी नहीं''

 

           “आर्य हीभारत के मूलनिवासी हैं विदेशी नहीं”

अंग्रेजों द्वारा अपनी सत्ता स्थाई और अपना भारत में ओचित्य सिद्ध करने के लिए सिन्धुघाटी की सभ्यता की खुदाई से ये बात विश्व में फैलाई की आर्य बहार से आये थे और आक्रान्ता थे | आर्यों ने भारत के मूलनिवासीयों को मार कर दक्षिण में धकेल दिए | इसमे अंग्रेज सफल भी हुए और भारत में लूटने का और फूट डालने का काम किया | इससे वे ये भी भारतीय जनमानस में बैठाने में सफल हुए की आर्य भी बाहरी और आक्रान्ता थे, हम भी बाहरी और आक्रान्ता है तो दोनों में अंतर क्या है ? हमें भी आर्यों की तरह स्वीकार कर लो | इस थ्योरी से अंग्रेज भारत के आपसी वर्गों में ही एक दुसरे के प्रति घ्रणा फ़ैलाने में सफल रहे | परन्तु अब भारत ने बहुत प्रगति कर ली है | साथ ही विज्ञानं भी प्रगति कर बहुत आगे बढ़ गया | हांल ही में कुछ नई  शोधों ने अंग्रेजों के इस छल को बिलकुल झुठला दिया है | हाल ही में हरियाणा के जिले हिसार स्थित राखीगढ़ी में खुदाई में दो अवशेष एक महिला एक पुरुष के मिले थे | इनकी DNA जाँच कराई गई | आर्कियोलोजिकल व जेनेटिक डाटा के विश्लेषण से वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे की आर्य और द्रविड़ तो एक ही माता पिता की संतान हैं | राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता का वर्तमान मे सबसे बड़ा केंद्र है | राखीगढ़ी शोध टीम के सदस्य व पुणे स्थित डेक्कन कालेज डीम्ड वि. वि. के पूर्व वाइस चांसलर प्रो. वसंद शिंदे तथा जेनेटिक वैज्ञानिक डा. नीरज राय ने ये जानकारी दी | ये बातें प्रतिष्ठित जर्नल ‘सेल’ में प्रकाशित हो चुकी है | इसका मतलब है इस तथ्य को  वैश्विक मान्यता भी मिल चुकी है | राखीगढ़ी की हड़प्पा कालीन सभ्यता की खुदाई में मिले 5 हजार साल पुराने अवशेषो से जुटाए अध्ययन से पता चलता है, की अफगानिस्तान से लेकर अंडमान तक के निवासियों का जीन एक ही है | बिना किसी बड़े बदलाव के | 12 हजार साल से पूर्व सम्पूर्ण दक्षिण एशिया का जीन एक ही था | माने आर्य - द्रविड़ सबके पूर्वज एक ही थे | इस सबसे आर्यों के बहारी होने की थ्योरी पूर्णतया फेल हो जाती है | प्रो. शिंदे ने तो सरकार को लिखा है की ये सब बातें अब इतिहास की पुस्तकों में पढाई जाएँ | डा. नीरज ने पुरातात्विक शोधों के आधार पर कहा की भारत में बड़ी संख्या में बाहरी लोगों के प्रवेश के साक्षय नहीं मिलते | डा. नीरज ने  बताया की यदि आर्य बहार से आते तो बड़ी संख्या में नरसंहार करते और अपनी बाहरी संस्कृति लाते और स्थानीय संस्कृति को नष्ट कर देते | पर ऐसा कहीं सिद्ध नहीं हो पाया | ऐसा इसलिए है की मानव कंकालों पर कहीं भी घाव या कटे टूटे हिस्से नहीं पाए गए हैं | भारत में व्यापर करने, समय - समय पर विदेशी आते रहे थे | और वे भरता में बसते भी गए | इससे थोड़ी बहुत मामूली सी जीन में मिलावट मिलती है | सो भारतीय भी व्यापर करने विदेश जाते थे | राखी गढ़ी में नदी किनारे अलग अलग आकर और आकृति के हवंनकुंड भी मिले हैं | कोयले और सरस्वती पूजा के अवशेष भी मिले है | जिससे वैदिक सभ्यता की पुष्टि होती है | या ये कहे की हड़प्पा सभ्यता ही वैदिक सभ्यता थी | कृषि, बागबानी, मत्स्यपालन भी भारत से शुरू हुआ |   

Thursday 27 December 2018


                   “सम्राट खारवेल”
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद चेदी राजवंश का उदय हुआ, जिसकी शाखा से खारवेल 200 ईसा पूर्व महामेघवाहन वंश से तीसरे शक्तिशाली चक्रवर्ती सम्राट हुए | भारत के बहुत बड़े भूभाग को इन्होंने अपने बाहूबल से विजित किया | यह जैन मतावलंबी थे | पर इन्होने हिन्दू मंदिरों का भी निर्माण और जीर्णोद्धार कराया | उदय गिरी की पर्वत श्रंखला की हाथीगुफा में मिले एक शिलालेख में इनकी प्रशस्ती मिलती हैं | 24 वर्ष की आयु में इनका राज्याभिषेक हुआ | खारवेल ने मगध, मथुरा, सातकरणी, विदर्भ, पाण्ड्य, उत्तरापथ, राष्ट्रिकों, और भोजकों पर भी आधिपत्य स्थापित कर उत्तर, दक्षिण और पशचिम में अपना राज्य विस्तार किया | शताब्दियों तक फिर कभी कलिंग को ऐसा योग्य और शक्तिशाली शासक नसीब नहीं हुआ | खारवेलचेदीवंश और कलिंग के इतिहास के ही नहीं, सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है | हाथीगुंफा के अभिलेख से स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेनानायक था, और उसने कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई |
    भारत में अपने समय के दो बड़े साम्राज्य मगध और कलिंग रहे है | खारवेल से पहले एक बार मगध ताकतवर हुआ तो कलिंग पर चढ़ाई कर उसे हरा कलिंग की प्रसिद्द जैन संत शीतलनाथ की बड़ी स्वर्ण मूर्ति भी उठा लाया | लम्बे समय तक कलिंग को यह अपमान सालता रहा | कलिंग में खारवेल का युग आया | खारवेल ने मौका देखते ही मगध पर हमले की योजना बनानी शुरू कर दी | तब मगध पर ब्रहस्पतिमित्र का शासन था | तभी एक यवन डेमेट्रियस ने भी मगध पर हमले की योजना बना ली, और खारवेल पर सूचना भेजी की ‘यही अच्छा मौका है तुम पूरब से हमला कर मगध से अपना बदला लो और मैं पश्चिम से हमला कर दोनों मगध का अस्तित्व मिटा देते हैं’ | खारवेल को क्रोध आ गया और डेमेट्रियस को कहला भेजा की ‘तूने ये कैसे सोच लिया की मैं मगध के विरुद्ध तेरा साथ दे दूंगा ये हमारा आपसी मामला है | और तू भारत की सीमा में आया ही कैसे मैं पहले तुझे देखता हूँ’ |  खारवेल मगध को छोड़ यवन के पीछे भागा और यवन को सुदूर पश्चिम भारत की सीमा से बाहर खदेड़कर आया | इन दोनों के हमले की तैय्यारी से मगध के होस उड़ रहे थे | पर ये नया नजारा देख मगध के कुछ जान में जान आई | वापसी में मगध खारवेल के स्वागत को खड़ा था | उसने ग्लानि भरे मन से अपना राजमुकुट खारवेल के चरणों में रख दिया | ये स्थति देख खारवेल भी भावाभिभूत हो गया | और मगध को क्षमा कर दिया | कई दिनों तक मगध की मेहमान नवाजी स्वीकार की | चलते समय मगध ने बहुत सा नजराना और साथ में कलिंग से लाई गई जैन संत शीतलनाथ की मूर्ति भी ससम्मान वापस की | इसके बाद दोनों साम्राज्यों की मित्रता और वैभव पुनः लौट आया |