Saturday 5 May 2018


                संस्कृत महान (किरातार्जुनियम) -– १
किरातार्जुनियम संस्कृत के 3 महाकाव्यों (व्रहद्त्रयी) में से एक महाकवि भारवि रचित प्रसिद्द महाकाव्य है | पांडवों के अज्ञातवास के समय महाभारत युद्ध को आवश्यक जान अर्जुन दिव्यास्त्रों की प्राप्ति हेतु स्वर्ग लोक जाते है | वहां शिवजी से भी पाशुपतास्त्र लाना है | तो शिवजी किरात युवक बनकर अर्जुन की परीक्षा लेते हैं | ये छोटा सा विषय महाभारत के वन पर्व का है | जिसे भारवि ने बृहद कर महाकाव्य का रूप दिया |
किरातार्जुनियम के एक पिछले श्लोक में हमने देखा की 4 स्वर (अ, आ, उ, ए,ओ वो भी लघु आ को छोड़कर कोई दीर्घ नहीं |) और एक व्यंजन न के द्वार महाकवि भारवि ने खूबसूरती से एक छंद की रचना कर दी | इस छंद की विशेषता है की लम्बवत या पंक्तियाँ ऊपर नीचे बदलकर भी पढ़ने से छंद का भाव नहीं बदलता है | इसे अलंकर की भाषा  में सर्वतोभद्र छंद (सभी और से ठीक) कहा जाता है | नीचे देखें -----
सर्वतोभद्र छंद
देवकानिनि कावादे
वाहिकास्वस्वकाहि वा ।
काकारेभभरे काका
निस्वभव्यव्यभस्वनि॥15:25
इसकी विशेषता है कि (1) चारों पंक्तियों के हर अक्षर को ऊपर से नीचे पढ़ने पर भी वही चारों पंक्तियाँ बन जाती हैं | और (2) यदि क्रम उलट दिया जाए, यानी चौथी पंक्ति को पहली, तीसरी को दूसरी, दूसरी को तीसरी और पहली को चौथी लिखकर पढ़ा जाए तो वही छंद बन जाता है | इस तरह लम्बवत ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर पढ़ने पर भी छंद बदलता नहीं | इसीलिए इसे सर्वतोभद्र (सभी तरफ़ से ठीक) कहा गया है |
(1)
दे वा का नि नि का वा दे
वा हि का स्व स्व का हि वा |
का का रे भ भ रे का का
नि स्व भ व्य व्य भ स्व नि ||
(2)
नि स्व भ व्य व्य भ स्व नि
का का रे भ भ रे का का |
वा हि का स्व स्व का हि वा
दे व का नि नि का वा दे ||
अर्थ :- [ हे युद्धकामी पुरुष ! यह युद्ध का मैदान है जो देवताओं तक को उत्प्रेरित कर देता है | यहां युद्ध शब्दों का नहीं, प्राणों का है | क्योंकि लड़ते समय लोग प्राणों को दाँव पर लगाते हैं, और अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए | यह मैदान मदमत्त हाथियों के झुंडों से भरा रहता है और कौवों को निमंत्रण देता है | यहाँ उन्हें जो युद्ध के लिए उत्सुक हैं और उन्हें भी जो नहीं हैं, लड़ना ही पड़ता है ||